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Showing posts from January, 2024

116. अध्यात्म का सहज मार्ग

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आध्यात्मिक पथ के बारे में आम धारणा यह है कि इसका अनुसरण करना कठिन है। श्रीकृष्ण ने पहले ऐसे लोगों को आश्वासन दिया था कि छोटे प्रयास कर्म योग में बड़ा लाभ पहुंचाते हैं ( 2.40) । वे इसे और सरल बनाकर समझाते हैं जब वे कहते हैं , ‘‘ दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार , कर्मों में यथायोग्य चेष्टा और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है’’ ( 6.17) । योग या आध्यात्मिक मार्ग उतना ही सरल है जितना भूख लगने पर भोजन करना ; समय पर काम करना ; समय पर सोना और थक जाने पर आराम करना। इसके अलावा बाकी सब सिर्फ बातें हैं जो हम खुद को और दूसरों को बताते हैं। एक बच्चे को एक बूढ़े व्यक्ति की तुलना में अधिक नींद की जरूरत होती है। भोजन के संबंध में हमारी आवश्यकताएं दिन की शारीरिक गतिविधियों के आधार पर भिन्न हो सकती हैं , यह दर्शाता है कि ‘यथायोग्य’ का अर्थ वर्तमान क्षण में जागरूक होना है। इसे पहले करने योग्य कर्म ( 6.1) या नियत कर्म ( 3.8) के रूप में संदर्भित किया गया था। हमारा दिमाग अपनी कल्पना से साधारण तथ्यों को बढ़ाचढ़ाकर इनके इर्द-गिर्द पेचीदा कहानियों को बुनता है। ये कहानि

115. ध्यान की एक विधि

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  श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप या तो अपने मित्र हैं या अपने शत्रु ( 6.6) । अपना मित्र बनने के लिए उन्होंने सुख-दु:ख की भावनाओं के प्रति ( 6.7), सोने-पत्थर जैसी चीजों के प्रति ( 6.8) और मित्र-शत्रु जैसे लोगों के प्रति ( 6.9), इंद्रियों को नियंत्रित करके समत्व बनाए रखने का मार्ग बताया ( 6.8) । इसके साथ-साथ श्रीकृष्ण ध्यान का मार्ग भी सुझाते हैं ( 6.10-6.15) । श्रीकृष्ण कहते हैं भौतिक संपत्ति से रहित एकांत में रहकर ( 6.10), एक साफ-सुथरी जगह पर बैठकर जो ज्यादा नीचे या ऊँचा न हो ( 6.11), नियंत्रित मन के साथ , पीठ और गर्दन को सीधा करके , चारों ओर देखे बिना ( 6.12-6.13), शान्त , निर्भय और एकाग्र रहकर ( 6.14) और निरंतर स्वयं से एकाकार होने का प्रयास करने से परम शांति प्राप्त होती है ( 6.15) । संवेदी उत्तेजनाओं के हमले के दौरान समत्व प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इसलिए एकांत में रहने से अस्थायी राहत मिलती है। इसका गहरा अर्थ यह है कि भले ही हम शारीरिक रूप से खुद को एकांत में रखते हैं पर मानसिक रूप से अपने व्यवसायों , परिस्थितियों और लोगों को अपने साथ ध्यान में ले जाने की सम्भाव

114. अति सर्वत्र वर्जयेत

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श्रीकृष्ण ने सोना , पत्थर और मुट्ठी  भर मिट्टी को बराबर मानने की बात कहने के बाद ( 6.8), कहा कि ‘‘सुहृद , मित्र , वैरी , उदासीन , मध्यस्थ , घृणित और बन्धुगणों में , धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है’’ ( 6.9) । श्रीकृष्ण ने चीजों से शुरुआत की और उन्हें समान मानने का सुझाव दिया। फिर वह हमारे जीवन में लोगों की ओर बढ़े और हमें मित्रों और शत्रुओं ; धर्मी और अधर्मी ; अजनबियों और रिश्तेदारों को बराबरी के साथ देखने को कहा। हम अपने आसपास के लोगों का जिस प्रकार वर्गीकरण करते हैं , उनके प्रति हमारा व्यवहार उसी वर्गीकरण पर आधारित होता है। दिलचस्प बात यह है कि हमारे लिए एक दोस्त दूसरे व्यक्ति का शत्रु हो सकता है और आज का एक दोस्त कल हमारा शत्रु बन सकता है जो दर्शाता है कि ये सभी विभाजन स्थितिजन्य या पक्षपाती हैं। इसलिए , श्रीकृष्ण इन विभाजनों को छोडक़र उनके साथ समान व्यवहार करने का सुझाव देते हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि , चीजों , लोगों और रिश्तों के मामले में , लोगों और रिश्तों को उपभोग की वस्तु नहीं मानना चाहिए। ध्यान देने योग्य है कि ,

113. परिस्थितियों को यथार्थ रूप में स्वीकार करना

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श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ जिसका अंत:करण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है , जिसकी स्थिति विकाररहित है , जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी , पत्थर और सोना समान है , वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है’’ ( 6.8) । ज्ञान स्वयं के बारे में जागरूकता है और जब कोई इसे प्राप्त करता है तो वह संतुष्ट होता है। विज्ञान की व्याख्या चीजों और लोगों के बारे में जिज्ञासा के रूप में की जा सकती है। इन सभी जिज्ञासाओं का उनके उत्तरों के साथ संग्रह और कुछ नहीं बल्कि वह ज्ञान है जो हमेशा अतीत का होता है और पुस्तकों में उपलब्ध होता है। आंतरिक यात्रा के प्रारंभिक चरणों में जिज्ञासा सहायक होती है लेकिन इसकी सीमा होती है। यहां तक कि विज्ञान को भी अपनी सीमाओं से संतुष्ट होना पड़ता है जैसे कि अनिश्चितता के सिद्धांत और कणों एवं तरंगों के संबंध में द्वैत आदि। दूसरी ओर , जबकि अव्यक्त अस्तित्व शाश्वत है , व्यक्त (प्रकट) निरंतर बदलता रहता है। जिज्ञासा उत्तर ढूंढती है , जबकि अस्तित्व अनुभवों के रूप में उत्तर देती है जो हममें से प्रत्येक के लिए अलग-अलग हैं और उन्हें साझा करने का कोई तरी

112. भीतर के शत्रु से सावधान

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    श्रीकृष्ण कहते हैं कि , व्यक्ति स्वयं को अपना उद्धार करने और अपने को अधोगति में डालने के लिए जिम्मेदार है ( 6.5) । श्रीकृष्ण इस जिम्मेदारी को निभाने का एक मार्ग सुझाते हैं जब वे कहते हैं , ‘‘ जिसने अपने आप को जीत लिया , उसके लिए उसका स्व ही उसका मित्र है , लेकिन उसके लिए जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त नहीं की , उसके लिए उसका स्व ही वास्तव में उसका शत्रु है’’ ( 6.6) । मूल बात स्वयं पर विजय प्राप्त करना है। आत्मा शब्द बारह बार श्लोक 6.5 और 6.6 में प्रकट होता है जिससे कई व्याख्याओं की संभावनाएं होती हैं। लेकिन , एक साधक के लिए , आगे के श्लोकों में निर्धारित सन्दर्भ खुद पर विजय प्राप्त करने के मूल पहलू के बारे में स्पष्टता प्रदान करेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ सर्दी-गर्मी और सुख-दु:खादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं , ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित हैं’’ ( 6.7) । इसका अर्थ चिरस्थायी द्वंद्वों से पार पाना है। अर्जुन ने कई युद्ध जीते थे जिससे उसे खुशी मिली। लेकिन कुरुक्षेत्र के युद