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130. अज्ञेय को जानना

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  श्रीकृष्ण ने अपनी परम प्रकृति को ‘जीवन तत्व’ के रूप में वर्णित किया जो ब्रह्माण्ड को सहारा देता है ( 7.5) और सूत्र का उदाहरण देते हैं जो एक सुंदर आभूषण बनाने के लिए मणियों को जोडक़र रखती है ( 7.7) । वह इसके कुछ और उदाहरण देते हैं जिससे भिन्न-भिन्न व्याख्याओं की सम्भावना है। ‘ जीवन तत्व’ का वर्णन करते हुए , श्रीकृष्ण ने पहले कहा , ‘‘ कोई भी ‘यह’ बिल्कुल नहीं जानता है , भले ही कई लोग इसका कई तरह से वर्णन करते हैं’’ ( 2.29) । ‘कोई नहीं’ उस व्यक्ति के लिए है जो इंद्रियों के माध्यम से इस जीवन तत्व को समझने की कोशिश कर रहा है जबकि जीवन तत्व इंद्रियों से परे है। निम्नलिखित श्लोकों को समझने के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जहां उन्होंने जीवन तत्व का वर्णन किया है। वे कहते हैं ,   ‘‘ मैं जल में रस हूँ , चंद्रमा और सूर्य   में प्रकाश , सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ , आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ’’( 7.8) । रस को आमतौर पर स्वाद के रूप में व्याख्यायित किया जाता है , लेकिन यह इसके वास्तविक अर्थ से दूर है। श्रीकृष्ण पानी की जीवन पोषण क्षमता की बात कर रहे हैं। इसी तरह ,

129. भगवान ‘पासा’ खेलते हैं

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  शुरु आाती ब्रह्माण्ड के सृजन के समय , यह सिर्फ ऊर्जा थी और बाद में पदार्थ का आकार लिया। वैज्ञानिक रूप से , यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रह्माण्ड में तापमान , घनत्व और मैटर-एंटीमैटर के अनुपात में सूक्ष्म (क्वांटम) भिन्नता थी और इन भिन्नताओं का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। ये परिस्थितियाँ ही पदार्थ के निर्माण के लिए जिम्मेदार हैं और विज्ञान इस बात से सहमत है कि आज हम अपने चारों ओर जो विविधता देखते हैं उसे बनाने के लिए भगवान पासा खेलते हैं। इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी निम्न प्रकृति अष्टांगिक है। अग्नि , पृथ्वी , जल , वायु और आकाश भौतिक संसार के लिए हैं और मन , बुद्धि और अहंकार जीवों के लिए हैं ( 7.4) । अग्नि का अर्थ उस ऊर्जा से है जो आदिकाल से मौजूद है। ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित हुआ जिसमें एक ठोस अवस्था (पृथ्वी) , तरल अवस्था (जल) और गैसीय अवस्था (वायु) हैं। उन सभी को रखने के लिए जगह यानी आकाश चाहिए। जीवों के मामले में , जीवित रहने के लिए उनमें एक भेद करने वाली प्रणाली की आवश्यकता होती है। मन सोच का बुनियादी स्तर है (प्रणाली 1 - त्वरित और सहज ज्ञान युक्त) और बुद्धि उच्च स

128. हर अंत एक शुरुआत है

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ मैं तुम्हारे लिए इस विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण कहूँगा , जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता’’ ( 7.2) । यह ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से मन उन्मुख लोगों के लिए मार्ग है। इससे पहले श्रीकृष्ण ने हृदय उन्मुख (भक्त) लोगों को ‘‘स्वयं में सभी प्राणियों को देखने के लिए , सभी प्राणियों में स्वयं को और हर जगह उन्हें देखने’’ का मार्ग दिखाया था ( 6.29) । यह जानने के बाद जानने के लिए और कुछ भी नहीं बचता है। वर्तमान का वैज्ञानिक निष्कर्ष यह है कि शून्य से ब्रह्माण्ड का सृजन होता है। हमारा विस्तार करता हुआ ब्रह्माण्ड 13.8 अरब साल पहले एक बिग बैंग में बना था। कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशन (ष्टरूक्चक्र) के साक्ष्य का हवाला देते हुए , यह तर्क दिया जाता है कि वर्तमान से पहले एक ब्रह्माण्ड था। ऐसा अनुमान है कि कुछ समय बाद ब्रह्माण्ड फैलकर तितर-बितर होकर शून्य के बराबर हो जाएगा और खाली जगह की ऊर्जा एक और ब्रह्माण्ड का सृजन करेगी। इसका तात्पर्य है कि यह सृजन और प्रलय की एक चक्रीय प्रक्रिया है। यह पृष्ठभूमि हमें समझने में मदद करती है

127. सीखने के लिए सुनना सीखो

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एक द्विआयामी नक्शा का उपयोग त्रिआयामी क्षेत्र के दर्शाने के लिए किया जाता है। यह एक आसान , उपयोगी और सुविधाजनक तरीका है , लेकिन इसकी भी सीमाएँ हैं। इसको समझने के लिए हमें क्षेत्र का पूरी तरह से अनुभव करने की जरूरत है। यही बात शब्दों के मामले में भी है जो लोगों , स्थितियों , विचारों , भावनाओं और कार्यों के सन्दर्भ में एक बहुआयामी जीवन का वर्णन करने का प्रयास करते हैं। मगर शब्दों की भी कई सीमाएँ होती हैं। पहली सीमा यह है कि शब्द ध्रुवीय हैं। यदि एक को अच्छा बताया जाए तो हम दूसरे को बुरे के रूप में कल्पना कर लेते हैं। शायद ही कोई शब्द हो जो ध्रुवों से परे की स्थिति का वर्णन कर सके। दूसरा , एक ही शब्द अलग-अलग लोगों में उनके अनुभवों और परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग भावनाएं पैदा करता है। यही कारण है कि कुछ संस्कृतियाँ एकाधिक व्याख्याओं की इन सीमाओं को दूर करके संवाद करने के लिए मौन का उपयोग करती हैं। तीसरा , हम शब्दों के शाब्दिक अर्थ पर रुक जाते हैं जो सत्य के बारे में जानने जैसा है लेकिन सत्य नहीं है। ऐसा ही एक शब्द है ‘मैं’ जिसका प्रयोग श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों करते हैं। जहां अर

126. योगी सर्वश्रेष्ठ है

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श्रीकृष्ण कहते हैं , योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है , शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वाले से भी योगी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन , तुम योगी बनो ( 6.46) । सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमे लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है , वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है ( 6.47) । योग का अर्थ एक मिलन है और योगी वह है जिसने स्वयं के साथ संयोजन प्राप्त कर लिया है। श्रीकृष्ण ने विभिन्न अवसरों पर योगी के विभिन्न पहलू बताए हैं। द्वंद्वों को पार करके द्वंद्वातीत होना , गुणों को पार करके गुणातीत होना और यह जानकर कि गुण वास्तविक कर्ता हैं उसे सिर्फ एक साक्षी बनकर रहना ; मित्र और शत्रु या स्तुति और आलोचना के प्रति समभाव रखना ; यज्ञ की तरह निष्काम कर्म करना ; कर्मफल के बारे में अपेक्षाएँ छोड़ देना आदि शामिल हैं। सबसे बढक़र , एक योगी स्वयं से संतुष्ट होता है। तपस्वी वह है जो सख्त अनुशासन का पालन करता है , बलिदान करता है और कुछ महान प्राप्त करने का संकल्प लेता है। उनकी प्रशंसा की जाती है क्योंकि वे कुछ ऐसा करते हैं जो एक साधारण मानव सामान्य हालात में न

125. भाग्य का आधार

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अर्जुन पूछते हैं कि यदि कोई श्रद्धा के साथ वैराग्य का अभ्यास करते हुए उसमें सिद्धि प्राप्ति के मार्ग में , सिद्धि प्राप्त करने से पहले ही मर जाता है ( 6.37), तो क्या उसे अभ्यास फिर से शुरू करना पड़ेगा ( 6.38) । श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि ऐसा व्यक्ति जो योग से विचलित हो गया है उसका विनाश कभी नहीं होगा ( 6.40); ऐसा व्यक्ति शुद्ध आचरण वाले या धनवान पुरुषों ( 6.41) या योगियों के घर में जन्म लेता है , जो जन्म अन्यथा दुर्लभ होते हैं ( 6.42) । अपने पूर्व शरीर में प्राप्त ज्ञान के साथ संयुक्त , वह पूर्णता के लिए प्रयास करता है ( 6.43) और कई जन्मों के बाद उस सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ( 6.45) अभ्यास द्वारा आगे निकल जाता है ( 6.44) ।    इसमें शामिल जटिलता को समझने के लिए मिट्टी का घड़ा सबसे अच्छा उदाहरण है। जब एक घड़ा बनाया जाता है तो वह कुछ जगह घेर लेता है और जब इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है , तो उसके अंदर की जगह उसके साथ नहीं चलती है। लेकिन घड़े में कुछ जगह हमेशा रहती है। दूसरे , इसमें रखी सामग्री के आधार पर , घड़ा गंध आदि जैसी कुछ विशेषताओं को प्राप्त क

124. मेहनत का कोई विकल्प नहीं है

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जीने का तरीका चाहे जो कुछ भी हो , श्रीकृष्ण ने अनंत आनंद प्राप्त करने के लिए एकत्व में स्थापित होने की बात की ( 6.31) । एकत्व प्राप्त करने में हमारे सामने तीन प्रमुख बाधाएँ हैं - पहला यह है कि इसे विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है और जटिलता को बढ़ाने के लिए , इन संस्कृतियों द्वारा निर्धारित मार्ग एक दूसरे का विरोध करते प्रतीत होते हैं। दूसरा , हमारे मन को विभाजित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है जो एकत्व प्राप्त करने से रोकता है। तीसरा , हम जिस चीज को नहीं जानते उसे अस्वीकार करने की प्रवृत्ति रखते हैं और एकत्व हमारे लिए पूरी तरह से नया क्षेत्र है। इन कठिनाइयों से गुजरते हुए अर्जुन पूछता है कि मन को कैसे नियंत्रित किया जाए। श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ नि:संदेह , मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है , परन्तु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ( 6.35) । मेरा यह वचन मान लो कि जिसका मन वश में हुआ नहीं है , ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है’’ ( 6.36) । श्रीकृष्ण ने पहले अशा