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Showing posts from January, 2023

46. क्या हमारा है, क्या नहीं

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  श्रीकृष्ण कहते हैं : जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जायेगी , उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा (2.52) । इसका तात्पर्य यह है कि जब हम मोह पर विजय प्राप्त करते हैं , तो हमारी इंद्रियों से उत्पन्न संवेदना हमें अपनी इच्छा से प्रभावित करने की शक्ति खो देगी। श्रीकृष्ण ने यहां सुनने को रूपक के रूप में चुना , क्योंकि हम अक्सर दूसरों के शब्दों जैसे प्रशंसा और आलोचना ; गपशप और अफवाहें आदि से प्रभावित होते हैं। मूल रूप से , क्या हमारा है और क्या नहीं इनके बीच अंतर करने की हमारी अक्षमता ही मोह है। यह भौतिक संपत्ति और भावनाओं के स्वामित्व की भावना है ; वर्तमान में और साथ ही भविष्य में। हालांकि , वास्तव में हम इनके मालिक नहीं हैं। जबकि हम उस चीज़ से जुड़े रहने की कोशिश करते हैं जो हमारी नहीं है , और हमें इस बारे में कोई भान नहीं है। हम देही / आत्मा

45. जन्म-मृत्यु के भ्रमपूर्ण बंधन

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  श्रीकृष्ण कहते हैं : समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्मरूपी बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं। (2.51) लंबे समय तक , मानव जाति का मानना था कि सूर्य स्थिर पृथ्वी के चारों ओर घूमता है और बाद में पता चला कि यह पृथ्वी ही है जो सूर्य के चारों ओर घूमती है। अंत में , हमारी समझ अस्तित्वगत सत्य के साथ संरेखित हुई , जिसका अर्थ है कि समस्या सत्य की हमारी गलत व्याख्या के कारण थी जो हमारी इंद्रियों की सीमाओं द्वारा लाए गए भ्रम से उत्पन्न हुई थी। जन्म और मृत्यु के बारे में हमारे भ्रम के साथ भी ऐसा ही है। श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत में देही या आत्मा के बारे में बताते हैं , जो सभी में व्याप्त है और अजन्मा , नित्य , सनातन और पुरातन (2.20) है। वह आगे कहते हैं कि आत्मा भौतिक शरीरों को बदल देती है जैसे हम पुराने कपड़ों को नए पहनने के लिए त्याग देते हैं (2.22) । जब वे कहते हैं कि संतुलित

44. संतुलित निर्णय लेना

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  हम सभी विभिन्न कारकों के आधार पर अपने , अपने परिवार और समाज के लिए कई निर्णय लेते हैं। श्रीकृष्ण हमें इस निर्णय लेने को अगले स्तर तक ले जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जब वे कहते हैं (2.50) ‘ योग : कर्मसु कौशलम ’ यानी समत्व के योग में हर कर्म सामंजस्यपूर्ण है। यह एक फूल की सुंदरता और सुगंध की तरह बहने वाले सामंजस्य का अनुभव करने के लिए कर्तापन और अहंकार को छोडऩे के बारे में है। कर्ता के रूप में , हमारे सभी निर्णय अपने और अपने परिवार के लिए सुख प्राप्त करने और दर्द से बचने के लिए निर्देशित होते हैं। यात्रा का अगला स्तर संतुलित निर्णय लेना है , खासकर जब हम संगठनों और समाज के लिए जिम्मेदार हैं , हालांकि , कर्ता अभी भी मौजूद है। यहाँ , श्रीकृष्ण उस परम स्तर की बात कर रहे हैं जहाँ कर्तापन को ही त्याग दिया जाता है और ऐसे व्यक्ति से जो कुछ भी प्रवाहित होता है वह सामंजस्यपूर्ण होता है। सर्वव्यापी चैतन्य उनके लिए कर्ता बन जाता है। यह

43. योग से नामकरण का लोप

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  हमारा जीवन हमारे कार्यों और निर्णयों के साथ - साथ दूसरों के कार्यों को भी अच्छे या बुरे के रूप में नामकरण करने का आदी है। श्रीकृष्ण कहते हैं : समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है (2.50), जिसका अर्थ है कि एक बार जब हम समत्व योग को प्राप्त कर लेते हैं तो नामकरण चला जाता है। हमारा दिमाग रंग बिरंगे चश्मे से ढका जैसा है जो हमारे माता - पिता , परिवार और दोस्तों द्वारा हमारे प्रारंभिक वर्षों के दौरान और साथ ही देश के कानून द्वारा कंडीशनिंग ( अनुकूलन ) के माध्यम से हममें अंकित हैं। हम इन चश्मों के माध्यम से चीजों / कर्मों को देखते रहते हैं और उनका अच्छे या बुरे के रूप में नामकरण करते हैं। योग में , इस चश्मे का रंग उतर जाता है , जिससे चीजें सा $ फ दिखने लगती हैं , जो कि टहनियों के बजाय जड़ों को नष्ट करने और यह चीजों को जैसी हैं वैसे ही स्वीकार करने के समान है। व्यावहारिक दुनिया में , यह विशेष नामकरण ( पहच