43. योग से नामकरण का लोप
हमारा
जीवन हमारे कार्यों और निर्णयों के
साथ-साथ दूसरों के
कार्यों को भी अच्छे
या बुरे के रूप
में नामकरण करने का आदी
है। श्रीकृष्ण कहते हैं: समबुद्धि
युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों
को इसी लोक में
त्याग देता है (2.50), जिसका
अर्थ है कि एक
बार जब हम समत्व
योग को प्राप्त कर
लेते हैं तो नामकरण
चला जाता है।
हमारा
दिमाग रंग बिरंगे चश्मे
से ढका जैसा है
जो हमारे माता-पिता, परिवार
और दोस्तों द्वारा हमारे प्रारंभिक वर्षों के दौरान और
साथ ही देश के
कानून द्वारा कंडीशनिंग (अनुकूलन) के माध्यम से
हममें अंकित हैं। हम इन
चश्मों के माध्यम से
चीजों/कर्मों को देखते रहते
हैं और उनका अच्छे
या बुरे के रूप
में नामकरण करते हैं। योग
में, इस चश्मे का
रंग उतर जाता है,
जिससे चीजें सा$फ दिखने
लगती हैं, जो कि
टहनियों के बजाय जड़ों
को नष्ट करने और
यह चीजों को जैसी हैं
वैसे ही स्वीकार करने
के समान है।
व्यावहारिक
दुनिया में, यह विशेष
नामकरण (पहचान) हमें अदूरदर्शी और
कम खुला बनाता है,
जिससे हमें निर्णय लेने
के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण
जानकारी से वंचित कर
दिया जाता है। प्रबंधन
के संदर्भ में, कोई भी
कार्य, अपर्याप्त या गलत व्याख्या
से दी गई जानकारी
के साथ लिया गया
निर्णय का विफल होना
तय है।
बीच
में रहना उस चर्चा
की तरह है जहाँ
एक छात्र को एक साथ
किसी मुद्दे के पक्ष में
और उसके विरुद्ध में
बहस करनी होती है।
यह कानून की तरह है,
जहां हम निर्णय लेने
से पहले दोनों पक्षों
की बात सुनते हैं।
यह सभी प्राणियों में
स्वयं को और सभी
प्राणियों को स्वयं (6.29) में
देखने जैसा है और
अंत में हर जगह
श्रीकृष्ण को देखने जैसा
है।
यह खुद को स्थिति
से जल्दी से अलग करने
और कहानी के दोनों पक्षों
की सराहना करने की क्षमता
है। जब यह क्षमता
विकसित हो जाती है,
तो हम अपने आप
को दारुमा गुडिय़ा की तरह बीच
में केन्द्रित करने लगते हैं।
जब कोई थोड़ी देर
के लिए समत्व का
योग प्राप्त कर लेता है,
तो उनमें से जो भी
कर्म निकलता है, वह सामंजस्यपूर्ण
होता है। आध्यात्मिकता को
सांख्यिकीय कोण से देखें तो,
यह समय का वह
प्रतिशत है जब हम
संतुलन में रहते हैं
और यात्रा इसे सौ प्रतिशत
तक बढ़ाने के बारे में
है।
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