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Showing posts from November, 2023

106. खुशियों का लगाम

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एक बार , मध्य एशिया से घोड़े पर सवार होकर एक आक्रमणकारी ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और विजय जुलूस निकालना चाहा। एक हाथी को सजाया गया और उस पर चढऩे के बाद उसने हाथी की लगाम मांगी। जब बताया गया कि यह एक महावत द्वारा नियंत्रित है , तो वह नीचे कूद गया और अपने घोड़े को यह कहते हुए बुलवाया कि वह कभी ऐसी सवारी नहीं करता जिसकी लगाम उसके हाथ में नहीं होती। इसी तरह , हमें आत्म निरीक्षण करने की आवश्यकता है कि क्या हमारी खुशी और भावनाओं की बागडोर हमारे हाथ में है या किसी और के हाथ में है। हम सभी सोचते हैं कि ये बागडोर हमारे हाथ में है , लेकिन हकीकत यह है कि बागडोर अक्सर किसी और के पास होती है। यह एक दोस्त हो सकता है , परिवार या कार्यस्थल में कोई व्यक्ति जिसकी मनोदशा , शब्द , राय , प्रशंसा और आलोचना हमें सुखी या दु:खी करती है ; भोजन , पेय या भौतिक चीजें ; अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति ; यहां तक कि हमारा अतीत या भविष्य भी। इस संबंध में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ जो साधक इस मनुष्य शरीर में , शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है

105. चिरस्थायी आनंद

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श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो दिव्य ज्ञान की पक्की समझ रखते हैं और भ्रम से बाधित नहीं होते हैं , वह न तो कुछ सुखद पाने में आनन्दित होते हैं और न ही अप्रिय का अनुभव करने पर शोक करते हैं , वे ब्रह्म में स्थित होते हैं ( 5.20) । हम परिस्थितियों और लोगों को सुखद और अप्रिय के रूप में विभाजित करते हैं और ज्ञानी इस विभाजन को छोड़ देता है। श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन को मोह-माया से बाहर आने के लिए कहते हैं जहां हम यह पहचान नहीं कर पाते हैं कि क्या हमारा है और क्या नहीं। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से सुख प्राप्त कर सकते हैं। दूसरी ओर , श्रीकृष्ण अक्षय आनंद के लिए एक समाधान देते हैं , जब वे कहते हैं कि जो लोग बाहरी इन्द्रिय सुखों से जुड़े नहीं हैं , वे स्वयं में दिव्य आनंद का अनुभव करते हैं। योग के द्वारा ईश्वर से जुडक़र वे अक्षय आनंद का अनुभव करते हैं ( 5.21) । श्रीकृष्ण ने चेतावनी दी है कि सांसारिक विषयों के संपर्क से उत्पन्न होने वाले सुख , हालांकि सांसारिक लोगों के लिए सुखद प्रतीत होते हैं , वास्तव में दु:ख का स्रोत हैं।  ऐसे सुखों का आदि और अंत होता है

104. निष्पक्षता प्राप्त करना

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श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसका मन और बुद्धि उस (आत्मा) में स्थित है और जिनके पाप जागरूकता से दूर हो गए हैं , वे बिना किसी वापसी की स्थिति में अर्थात शास्वत अवस्था में पहुंच जाते हैं ( 5.17) । अनजान जीना अँधेरे में जीने जैसा है , जहां हम गिरते रहते हैं और खुद को चोट पहुँचाते रहते हैं। अगला स्तर प्रकाश की कुछ चमक का अनुभव करने जैसा है जहां व्यक्ति एक पल के लिए जागरूकता प्राप्त करता है लेकिन फिर से अज्ञानता से घिर जाता है। अंतिम चरण सूर्य के प्रकाश की तरह स्थायी प्रकाश होने जैसा है जहां जागरूकता एक महत्वपूर्ण स्तर पर पहुंच जाती है और कोई वहां से कभी नहीं लौटता है। बिना वापसी की इस अवस्था को मोक्ष या परम स्वतंत्रता भी कहा जाता है। यह मेरी स्वतंत्रता नहीं है , बल्कि ‘मैं’ से मुक्ति है क्योंकि सभी समस्याएँ ‘मैं’ के कारण हैं। समत्व तब होता है जब कोई वापस न आने की स्थिति प्राप्त करता है और इस संबंध में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ , हाथी , कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं’’ ( 5.18) । समत्व गीता के मूलभूत सिद्धान्तों

103. पुण्य और पाप की जड़ें

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    श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की , न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं , किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है’’ ( 5.14) । परमेश्वर एक कर्ता नहीं बल्कि एक सृष्टा यानी रचनाकार या रचनात्मकता हैं। रचनाएं दो प्रकार की होती हैं। एक कुम्हार की तरह है जो मिट्टी के बर्तन बनाता है और सृष्टि (बर्तन) स्वतंत्र अस्तित्व के लिए निर्माता से अलग हो जाती है। दूसरा एक नर्तक की तरह है जो नृत्य का सृजन करती है। लेकिन नर्तक की अनुपस्थिति में नृत्य (सृजन) नहीं होगा। भगवान एक नर्तक के समान हैं , जहां पूरा ब्रह्माण्ड उन पर निर्भर है , लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए नृत्य करने वाले शिव को नटराज और संगीतकार श्रीकृष्ण को मुरारी के रूप में चित्रित किया गया है। भगवान को एक रासायनिक प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक के रूप में भी देखा जा सकता है जहां एक उत्प्रेरक की उपस्थिति से रासायनिक प्रतिक्रिया जारी रहती है जब कि उत्प्रेरक स्वयं किसी भी परिवर्तन से नहीं गुजरता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि सर्वव्यापी किसी के पुण्य या पाप को ग्रहण नहीं करता है। मनुष्य बहकावे में आ