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Showing posts from October, 2022

31. छोटे प्रयास से कर्मयोग में बड़ा लाभ

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श्रीकृष्ण (2.40) आश्वासन देते हैं कि कर्मयोग का थोड़ा सा भी साधन परिणाम देते हैं और यह धर्म हमें बड़े भय से रक्षा प्रदान करता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहां सांख्य योग शुद्ध जागरूकता है, वहीं कर्मयोग में प्रयास करना पड़ता है। यह उन साधकों के लिए भगवान श्रीकृष्ण का एक निश्चित आश्वासन है, जिन्होंने अभी-अभी अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू की है और जो इस प्रयास को कठिन पाते हैं। श्रीकृष्ण हमारी कठिनाई को समझते हैं और हमें विश्वास दिलाते हैं कि एक छोटा सा प्रयास भी अद्भुत परिणाम दे सकता है। वह हमें निष्काम कर्म और समत्व के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। एक तरीका यह है कि श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण द्वारा बताये गए कर्मयोग का अभ्यास शुरू करें। समय के साथ, जब हम कर्मयोग के नजरिये से अपने अनुभवों को देखने का अभ्यास करते हैं, हमारी अनुभूतियां और गहरी होती जाती हैं जबतक हम अपनी अंतरात्मा तक नहीं पहुंच जाते। एक वैकल्पिक तरीका यह है कि हम अपने डर को समझें और समझें कि कर्मयोग का अभ्यास उन्हें कैसे दूर कर सकता है। डर मूलत: हमारी आंतरिक अपेक्षाओं और वास्तविक दुनिया की विसंगति का

30. पानी, रेत और पत्थर पर लेखन

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श्रीकृष्ण कहते हैं (2.39) कि सांख्य (2.11-2.38) के बारे में स्पष्ट करने के बाद वे अब योग (या कर्मयोग) की व्याख्या करेंगे, जिसके अभ्यास से व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा। सांख्ययोग की व्याख्या करते हुए, श्रीकृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि वह अविनाशी चैतन्य है जिसकी मृत्यु नहीं होती है। इसी श्लोक से श्रीकृष्ण कर्मयोग के द्वारा इसकी व्याख्या करने लगते हैं। इसलिए कर्म बंधन और योग को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन और गीता में इसका प्रयोग कई संदर्भों में किया जाता है। श्रीकृष्ण (2.48) समत्व को ही योग कहते हैं जहॉं सफलता या असफलता के प्रति आसक्ति को छोड़ दिया जाता है। श्लोक 2.38 में भी  श्रीकृष्ण का जोर सुख-दुख, जीत और हार, और लाभ और हानि के प्रति समत्व बनाए रखने पर है। कर्म बंधन उन छापों या निशानों को संदर्भित करता है, जो सुखद और दर्दनाक दोनों तरह के होते हैं, जो हमारे द्वारा किए गए कर्मों और हमें भीतर और बाहर से प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं द्वारा छोड़े जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से इन्हें तंत्रिका प्रतिरूप (न्यूरल पैटर्न) कहा जाता है। ये छा

29. संतुलन ही परमानन्द

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श्लोक 2.38 गीता के संपूर्ण सार को दर्शाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि वह सुख और दुख, लाभ और हानि, और जय और पराजय समान समझकर युद्ध करे तो उसे कोई पाप नहीं लगेगा। उल्लेखनीय है कि यहाँ ‘समानता’ का सन्दर्भ युद्ध के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के कर्म पर लागू होता है।  यह श्लोक बस इतना कहता है कि हमारे सभी कर्म प्रेरित हैं और यही प्रेरणा कर्म को अशुद्ध या पाप बनाती है। हम शायद ही कोई कर्म जानते हैं या करते हैं जो सुख, लाभ या जीत पाने के लिए या दर्द, हानि या हार से बचने के लिए है। सांख्य और  कर्मयोग की दृष्टि से किसी भी कर्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है। कर्ता, चेष्टा और कर्मफल।   श्रीकृष्ण ने कर्मफल को सुख/दुख, लाभ/हानि और जय/पराजय में विभाजित किया। श्रीकृष्ण इस श्लोक में समत्व प्राप्त करने के लिए इन तीनों को अलग करने का संकेत दे रहे हैं। एक तरीका यह है कि कर्तापन को छोड़ कर साक्षी बन जाएं, इस एहसास से कि जीवन नामक भव्य नाटक में हम एक नगण्य भूमिका निभाते हैं। दूसरा तरीका यह महसूस करना है कि कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है क्योंकि यह हमारे प्रयासों के अलावा कई क

28. परमात्मा से एकाकार हेतु धर्मों का त्याग

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श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) और परधर्म (3.35) के बारे में बताते हैं और अंत में सभी धर्मों (18.66) को त्यागकर परमात्मा के साथ एक होने की सलाह देते हैं। अर्जुन का विषाद उसके भय से उत्पन्न हुआ कि यदि उसने युद्ध लड़ा और अपने भाइयों को मार डाला तो उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचेगी। श्रीकृष्ण उसे (2.34-2.36) कहते हैं कि युद्ध से पलायन करने पर भी वह अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि लडऩा उसका स्वधर्म है। सब लोगों को लगेगा कि अर्जुन युद्ध में शामिल होने से डरे और युद्ध से डरना क्षत्रिय के लिए मृत्यु से भी बदतर है। श्रीकृष्ण आगे बताते हैं (3.35) कि, स्वधर्म, भले ही दोषपूर्ण या गुणों से रहित हो, परन्तु परधर्म से बेहतर है और स्वधर्म के मार्ग में मृत्यु बेहतर है, क्योंकि परधर्म भय देने वाला है। परधर्म को हमारी बाहरी इन्द्रियों द्वारा आसान और बेहतर माना जाता है खासतौर पर तब जब हम सफल लोगों को देखते हैं, जबकि आन्तरिक स्वधर्म के लिए अनुशासन और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है और इसे धीरे-धीरे हमारे अंदर उजागर करना पड़ता है। आमतौर पर हमारे आत्म-मूल्य की भावना, अन्य बातों के अलावा हमा

27. स्वधर्म के साथ सद्भाव में

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श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) की व्याख्या करते हैं और वे अर्जुन को बताते हैं कि इस तरह अनचाही लड़ाई स्वर्ग का द्वार खोलती है (2.32) और इससे भागने से स्वधर्म और प्रसिद्धि की हानि होगी और पाप होगा (2.33)। युद्ध के मैदान में अर्जुन को दी गई इस सलाह को सही संदर्भ में देखने की जरूरत है। श्रीकृष्ण वास्तव में स्वधर्म के साथ सद्भाव और तालमेल की बात कर रहे हैं, न कि युद्ध के बारे में। श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों, कथनों और कार्यों के बीच असंगति पाते हैं। वह अर्जुन में सद्भाव लाने की दिशा में मार्गदर्शन करने का प्रयास करते हैं। अर्जुन के मामले में, अपने स्वधर्म के अनुसार युद्ध लडऩे में सद्भाव है और युद्ध से भागना असामंजस्य है। वास्तव में, सद्भाव निर्माण का नियम है जहां सबसे छोटे ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ से लेकर सबसे बड़ी आकाशगंगा, ग्रह और तारे सामंजस्य में हैं। हम अपने पसंदीदा संगीत का आनंद तभी लेते हैं जब रेडियो और रेडियो स्टेशन सामंजस्य (धुन) में हों। इतने सारे अंगों और रसायनों से युक्त मानव शरीर की तुलना में सद्भाव का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है, जिसकी सहक्रियात्मक कार्यप

26. गुलाब कभी कमल नहीं बन सकता

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श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) के बारे में बताते हैं और अर्जुन को सलाह देते हैं कि क्षत्रिय होने के नाते उन्हें लडऩे में संकोच नहीं करना चाहिए (2.31) क्योंकि यह उनका स्वधर्म है। श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत उस से करते हैं जो शाश्वत, अव्यक्त और सभी में व्याप्त है। इसे आसानी से समझने के लिए आत्मा कहा जाता है। फिर वह स्वधर्म के बारे में बात करते हैं, जो उस से एक कदम पहले है और बाद में वह कर्म पर आते है। अंतरात्मा की अनुभूति की यात्रा को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण है हमारी वर्तमान स्थिति, दूसरा है स्वधर्म का बोध और अंत में, अंतरात्मा तक पहुंचना। वास्तव में, हमारी वर्तमान स्थिति हमारे स्वधर्म, अनुभवों, ज्ञान, स्मृतियों और हमारे अस्थिर मस्तिष्क द्वारा एकत्रित धारणाओं का एक संयोजन है। जब हम अपने आप को अपने मानसिक बोझ से मुक्त करते हैं तो स्वधर्म धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाता है।  क्षत्रिय ‘क्षत’ और ‘त्रय’ का संयोजन है, क्षत का अर्थ है चोट और त्रय का अर्थ है सुरक्षा देना। क्षत्रिय वह है जो चोट से सुरक्षा देता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक माँ का है जो गर्भ में बच्चे की र