27. स्वधर्म के साथ सद्भाव में


श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) की व्याख्या करते हैं और वे अर्जुन को बताते हैं कि इस तरह अनचाही लड़ाई स्वर्ग का द्वार खोलती है (2.32) और इससे भागने से स्वधर्म और प्रसिद्धि की हानि होगी और पाप होगा (2.33)। युद्ध के मैदान में अर्जुन को दी गई इस सलाह को सही संदर्भ में देखने की जरूरत है। श्रीकृष्ण वास्तव में स्वधर्म के साथ सद्भाव और तालमेल की बात कर रहे हैं, न कि युद्ध के बारे में।

श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों, कथनों और कार्यों के बीच असंगति पाते हैं। वह अर्जुन में सद्भाव लाने की दिशा में मार्गदर्शन करने का प्रयास करते हैं। अर्जुन के मामले में, अपने स्वधर्म के अनुसार युद्ध लडऩे में सद्भाव है और युद्ध से भागना असामंजस्य है।

वास्तव में, सद्भाव निर्माण का नियम है जहां सबसे छोटे ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ से लेकर सबसे बड़ी आकाशगंगा, ग्रह और तारे सामंजस्य में हैं। हम अपने पसंदीदा संगीत का आनंद तभी लेते हैं जब रेडियो और रेडियो स्टेशन सामंजस्य (धुन) में हों। इतने सारे अंगों और रसायनों से युक्त मानव शरीर की तुलना में सद्भाव का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है, जिसकी सहक्रियात्मक कार्यप्रणाली हमें वह बनाती है जो हम हैं। सद्भाव (सामंजस्य) चीजों और स्तिथियों को संदर्भित करता है जैसा की वे हैं न कि जैसा हम चाहते हैं कि वे हमारे सन्दर्भ और मूल्य प्रणाली के फ्रेम में हों। 

हमें बचपन से सिखाया जाता है कि मृत्यु के बाद अच्छे कर्म हमें स्वर्ग में ले जाते हैं और बुरे कर्म नरक में ले जाते हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि स्वर्ग और नर्क जीवन के बाद के स्थान नहीं हैं, बल्कि यहां और अभी मौजूद हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी को उसकी क्षमता के अनुसार अवसर मिलता है या नहीं।

जब हम दूसरों के स्वधर्म को समझते हैं, तो परिवारों, कार्यस्थलों और रिश्तों में सामंजस्य आता है जो स्वर्ग है और उसका अभाव नर्क है। हमारी इच्छाएं पूरी होती हैं या नहीं, इसके आधार पर हम सुख या दुख का अनुभव करते हैं। जब स्वधर्म के साथ आंतरिक सद्भाव प्राप्त हो जाता है, तो यह बाहरी दुनिया की परवाह किए बिना स्वर्ग के समान है।

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