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Showing posts from September, 2023

97. ज्ञान की तलवार

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श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ जिसने योग द्वारा कर्म को त्याग दिया है और अपने संदेहों को ज्ञान से दूर कर दिया है , वह स्वयं में स्थिर हो जाता है ; कर्म उसे नहीं बांधता है ( 4.41) । अत: हृदय में निवास करने वाले अज्ञान जनित संशय को ज्ञान रूपी तलवार से काटकर योग में स्थित हो जा’’ ( 4.42) । श्रीकृष्ण हमें कर्मबंधन से मुक्त होने के लिए ज्ञान की तलवार का उपयोग करने की सलाह देते हैं। जब हमारे द्वारा किये गए या नहीं किये गए कार्यों द्वारा चीजों या रिश्तों को नुकसान होता है जिससे हमें पश्चाताप होता है , वह पश्चाताप एक प्रकार का कर्मबंधन है। इसी तरह , हमारे जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले दूसरों के कार्यों या निष्क्रियताओं के लिए हम जो निंदा करते हैं , वह भी एक प्रकार का कर्मबंधन है। ज्ञान की तलवार ही एकमात्र साधन है जो हमें पश्चाताप और निंदा के जटिल जाल से खुद को निकालने में मदद करती है। गीता के चौथे अध्याय को ‘ज्ञान कर्म संन्यास’ योग कहा गया है। यह इस बात से शुरू होता है कि परमात्मा कैसे कर्म करते हैं और हमें बताता है कि सभी कर्मों को निस्वार्थ कर्मों के यज्ञ की तरह कर

96. बुद्धि स्वयं में है

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एक बार सृष्टा सोच रहा था कि उस बुद्धि को कहाँ छिपाया जाए जिसे पाकर कुछ भी पाने को शेष न रहे। उसकी पत्नी एक ऊंचे पहाड़ पर या गहरे समुद्र में रखने का सुझाव देती है। लेकिन दोनों विकल्पों  को छोड़ दिया गया क्योंकि आदमी पहाड़ पर चढ़ सकता है और पानी में तैर भी सकता है। तब इस बुद्धि को मनुष्य के अंदर ही रखने का निर्णय लिया गया , जबकि मनुष्य इसे जीवन भर बाहर खोजता रहता है। यह रूपक हमारे लिए समझना आसान बनाता है जब श्रीकृष्ण कहते हैं , निश्चित रूप से , इस दुनिया में कुछ भी ज्ञान की तरह पवित्र नहीं है। नियत समय में , जो योग में सिद्ध हो जाता है , वह इसे स्वयं में पाता है ( 4.38) । सार यह है कि बुद्धि स्वयं में है और उसी माप से सभी में है। यह सिर्फ अपने में इसे साकार करने का सवाल है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं , श्रद्धावान और जितेंद्रिय ज्ञान प्राप्त करके परम-शांति को पाते हैं ( 4.39) । श्रीकृष्ण इसके विपरीत बताते हुए कहते हैं , श्रद्धा रहित अज्ञानी नष्ट हो जाता है और उसके लिए इस दुनिया या अन्य में कोई खुशी नहीं है ( 4.40) । गीता में श्रद्धा एक मूल उपदेश है। भक्ति या सकारात्मक सोच

95. पाप के समुद्र के लिए ज्ञान रूपी नाव

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कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान अर्जुन का विषाद उसकी इस भावना के कारण है कि वह पाप कर रहा है। उसे लगता है कि अपने शिक्षकों , रिश्तेदारों और दोस्तों को मारना  पाप के अलावा और कुछ नहीं है ( 1.36) और हमें इस तरह के पापपूर्ण कार्य से दूर हो जाना चाहिए ( 1.38) । वह इस तथ्य से और भी अधिक परेशान है कि वह और उसके भाई राज्य के लालच में अपने ही भाइयों को मारने की तैयारी कर रहे हैं ( 1.45) । अर्जुन की इस भ्रांन्ति को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन से पाप के बारे में बात करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं , यदि आप पापियों में सबसे अधिक पापी हैं , तो भी आप ज्ञान के नाव से पाप के समुद्र को सुरक्षित रूप से पार कर लेंगे ( 4.36) । जिस प्रकार प्रज्वलित ज्वाला जलाऊ लकड़ी को भस्म कर देती है , उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है ( 4.37) । श्रीकृष्ण के लिए पाप अंधकार के समान है , जो ज्ञान और जागरूकता के प्रकाश से दूर हो जाता है। अँधेरा बहुत समय से रहा होगा या घना अँधेरा हो सकता है , लेकिन प्रकाश उसे तुरंत दूर कर देता है। हालाँकि , यह उन धार्मिक उपदेशों के विपरीत है

94. सीखने की कला

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जीवन भर सीखने की क्षमता एक मानवीय अक्षय निधि है। मूल प्रश्न यह है कि कैसे सीखें और क्या सीखें।   श्रीकृष्ण कहते हैं , जो ज्ञानी सत्य को जान गए हैं , उनको साष्टांग प्रणाम कर , पूछताछ और सेवा करने से तत्व ज्ञान प्राप्त होगा ( 4.34) । साष्टांग प्रणाम का अर्थ है विनम्रता , विनयशीलता , दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की क्षमता और बुनियादी तौर पर खुले विचारों वाला होना है , जो अहंकार पर काबू पाना है। सवाल करना एक प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक सर्किट का फीडबैक लूप जैसा है जहां हम जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं उस पर हम सवाल करते हैं कि हमने ऐसा क्यों कहा या क्यों किया। इस प्रक्रिया को तबतक जारी रखना है जबतक सारे प्रश्न ही समाप्त न हो जायें। सेवा करुणा से उत्पन्न होती है। अगला प्रश्न यह है कि कौन ज्ञानी या साक्षात गुरु है और उन्हें कैसे खोजा जाए। श्रीमद्भागवत में , श्रीकृष्ण एक बुद्धिमान व्यक्ति को संदर्भित करते हैं जो कहते हैं कि उनके पास 24 गुरु हैं और उन्होंने पृथ्वी से क्षमा करना सीखा है ; एक बच्चे से मासूमियत ; हवा से अनासक्ति ; मधुमक्खियों से जमाखोरी से बचना ; सूर्य से समभाव ; म

93. संतुष्टि ही अमृत

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श्रीकृष्ण ने दो स्थानों ( 3.9 से 3.15 और 4.23 से 4.32) पर यज्ञ रूपी नि:स्वार्थ कर्म की बात की। वह सावधान करते हैं कि प्रेरित कार्य हमें कर्मबंधन में बांधते हैं और अनासक्ति , जो आसक्ति और विरक्ति के पार है , के साथ करने की सलाह देते हैं ( 3.9) । वह और भी बताते हैं कि यज्ञ की नि:स्वार्थ कर्म में सर्वोच्च शक्ति  निहित है ( 3.15) और शुरुआत में , इस शक्ति का उपयोग करके सृष्टा ने सृष्टि की रचना की ( 3.10) । उन्होंने यज्ञ  के कई उदाहरण दिए और निष्कर्ष निकाला कि वे सभी नि:स्वार्थ कर्मों के अलग अलग रूप हैं ( 4.23 से 4.32) और यह अनुभूति हमें मुक्त कर देगी ( 4.32) । इसे प्रभु का आश्वासन समझकर सिरोधार्य करना चाहिए। इसके अलावा , पाप के बारे में , श्रीकृष्ण ने संकेत दिया ( 2.38 और 4.21) कि सुख-दु:ख , लाभ-हानि , जय-पराजय के द्वंद्वों के बीच असंतुलन से उत्पन्न होने वाली क्रिया ही पाप है। इसके परिणामस्वरूप अपराध बोध , खेद , द्वेष और ईष्र्या के रूप में कर्मबंधन सामने आता है। उन्होंने आगे कहा , ‘‘ जिसका अंत:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री