94. सीखने की कला
जीवन भर सीखने की क्षमता एक मानवीय अक्षय निधि है। मूल
प्रश्न यह है कि कैसे सीखें और क्या सीखें।
श्रीकृष्ण कहते हैं, जो ज्ञानी सत्य को जान गए हैं, उनको साष्टांग प्रणाम
कर, पूछताछ और सेवा
करने से तत्व ज्ञान प्राप्त होगा (4.34)। साष्टांग प्रणाम का अर्थ है विनम्रता, विनयशीलता, दूसरों के
दृष्टिकोण को समझने की क्षमता और बुनियादी तौर पर खुले विचारों वाला होना है, जो अहंकार पर
काबू पाना है। सवाल करना एक प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक सर्किट का फीडबैक लूप जैसा है
जहां हम जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं उस पर हम सवाल करते हैं कि हमने ऐसा क्यों
कहा या क्यों किया। इस प्रक्रिया को तबतक जारी रखना है जबतक सारे प्रश्न ही समाप्त
न हो जायें। सेवा करुणा से उत्पन्न होती है।
अगला प्रश्न यह है कि कौन ज्ञानी या साक्षात गुरु है और
उन्हें कैसे खोजा जाए। श्रीमद्भागवत में, श्रीकृष्ण एक बुद्धिमान व्यक्ति को संदर्भित
करते हैं जो कहते हैं कि उनके पास 24 गुरु हैं और उन्होंने पृथ्वी से क्षमा करना सीखा है; एक बच्चे से
मासूमियत; हवा से अनासक्ति; मधुमक्खियों से
जमाखोरी से बचना; सूर्य से समभाव; मछली से इंद्रियों का जाल; और सूची जारी
रहती है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक सीखने के तीन गुण हमारे भीतर मौजूद हैं, गुरु हमारे आसपास
हैं।
‘क्या सीखें’ के
बारे में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि, जिसे जानकर आप फिर से इस तरह भ्रमित नहीं होंगे, जिससे आप सभी
प्राणियों को स्वयं में देखेंगे, मुझे भी (4.35)। इस श्लोक में यह भी उद्धृत किया गया है कि ‘उसको’ जानो जिसे जानने के बाद कुछ भी जानने को
शेष नहीं रहता। निश्चित रूप से, यह दुनिया की सभी किताबें पढऩा नहीं है। श्रीकृष्ण इसे सरल
बनाते हैं जब वे कहते हैं कि यह ‘वह’ है जिसके द्वारा हम सभी प्राणियों और भगवान
को स्वयं में देख सकेंगे।
हम अपने में अच्छाई और दूसरों में बुराई का महिमामंडन करते
हैं। यह श्लोक कहता है कि हममें भी बुराइयाँ हैं और दूसरों में भी अच्छाइयाँ हैं
और सर्वत्र भगवान है। एक बार इस साधारण सी बात को जान लेने के बाद भ्रम की कोई
गुंजाइश नहीं रह जाती।
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