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Showing posts from November, 2022

35. जीने का तरीका है ‘कर्मयोग’

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  श्रीकृष्ण कहते हैं (2.47) कि हमें अपना कर्म करने का अधिकार है , लेकिन कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। अगर हमारे किसी प्रियजन को सर्जरी की आवश्यकता होती है , तो हम सर्जन की तलाश करते हैं जो सक्षम भी है और ईमानदार भी। उसकी क्षमता सर्जरी की सफलता सुनिश्चित करेगी और उसकी ईमानदारी यह सुनिश्चित करेगी कि वह कोई अनावश्यक सर्जरी नहीं करेगा। संक्षेप में , हम एक ऐसे सर्जन की तलाश कर रहे हैं जो कर्मयोगी हो। इस स्तिथि से दो रास्ते हमें श्लोक को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि हमें सेवा प्रदान करनेवाले सभी लोग कर्मयोगी होंगे और वे हमें वह सर्वोत्तम परिणाम देंगे जिसकी हम आशा कर सकते हैं। यदि हम समत्व के सिद्धांत को अपने ऊपर लागू करते हैं , तो हमें भी अपने दैनिक जीवन में अन्य लोगों की ऐसी ही मदद करते हुए कर्मयोगी होना चाहिए। यह श्लोक कहता है कि हम जो कुछ भी करते हैं , अपने लौकिक और पारिवारिक मामलों में , हमें अ

34. कर्म प्राथमिक, कर्मफल नहीं

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  गीता के प्रतिष्ठित श्लोक 2.47 में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का ही अधिकार है , उसके परिणाम यानी कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। वह आगे कहते हैं कि कर्मफल हमारे किसी भी कार्य के लिए प्रेरणा नहीं होना चाहिए और यह भी कि , हमें अकर्म की ओर झुकना नहीं चाहिए। यह गीता का सबसे उद्धृत श्लोक है , क्योंकि जीवन के विभिन्न आयामों में इसे देखा जा सकता है। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं (7.21-7.22) कि श्रद्धा चमत्कार कर सकती है। इस श्लोक का सबसे आसान तरीका यह है कि श्रीकृष्ण पर श्रद्धा रखकर बिना इसके तर्क में गहराई से उतरे या बिना इसके विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण का प्रयास किए , अपने जीवन में इसे लागू करना चाहिए। हमें श्रीकृष्ण में अपनी श्रद्धा गहरी करनी चाहिए और उसका अभ्यास शुरू करना चाहिए। इस श्लोक के शाब्दिक अर्थ को व्यवहार में लाना ही हमें कर्मयोग के शिखर पर ले जा सकता है। दूसरा पहलू यह है कि अपने कर्मों के परिणाम पर ध्यान केंद्र

34. कर्म प्राथमिक, कर्मफल नहीं

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गीता के प्रतिष्ठित श्लोक 2.47 में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का ही अधिकार है, उसके परिणाम यानी कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। वह आगे कहते हैं कि कर्मफल हमारे किसी भी कार्य के लिए प्रेरणा नहीं होना चाहिए और यह भी कि, हमें अकर्म की ओर झुकना नहीं चाहिए। यह गीता का सबसे उद्धृत श्लोक है, क्योंकि जीवन के विभिन्न आयामों में इसे देखा जा सकता है। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं (7.21-7.22) कि श्रद्धा चमत्कार कर सकती है। इस श्लोक का सबसे आसान तरीका यह है कि श्रीकृष्ण पर श्रद्धा रखकर बिना इसके तर्क में गहराई से उतरे या बिना इसके विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण का प्रयास किए, अपने जीवन में इसे लागू करना चाहिए। हमें श्रीकृष्ण में अपनी श्रद्धा गहरी करनी चाहिए और उसका अभ्यास शुरू करना चाहिए। इस श्लोक के शाब्दिक अर्थ को व्यवहार में लाना ही हमें कर्मयोग के शिखर पर ले जा सकता है। दूसरा पहलू यह है कि अपने कर्मों के परिणाम पर ध्यान केंद्रित करने से हम स्वयं कर्म से दूर हो जाएंगे और परिणामस्वरूप, कर्मफल से ही वंचित हो जाएंगे। जैसे एक छात्र द्वारा खराब तरीके से निष्पादित हुए कर्म यानी पढ़ाई

33. वेदों को पार कर अंतरात्मा को पाना

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एक बार, कुछ दोस्त यात्रा कर रहे थे और उन्हें एक चौड़ी नदी पार करनी थी। उन्होंने एक नाव बनाई और नदी को पार किया। फिर उन्होंने अपनी बाकी यात्रा के लिए भारी नाव को ढोकर अपने साथ ले जाने का फैसला किया, यह सोचकर कि यह उपयोगी होगा। इसके चलते उनका सफर धीमा और तकलीफ दायक हो गया। यहां नदी दर्द की ध्रुवता है और नाव दर्द को दूर करने का एक साधन है। इसी तरह, हमें अपने दैनिक जीवन में सामना करने वाली कई दर्द ध्रुवों से राहत देने के लिए कई यंत्र और अनुष्ठान हैं। वेद (ज्ञान) अस्थायी दर्द ध्रुवों से राहत देने के लिए कई अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं और इनमें से कई अनुष्ठान उपलब्ध हैं और आज तक किए जा रहे हैं। जब हम स्वास्थ्य, व्यवसाय, कार्य और परिवार के क्षेत्रों में कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो इन अनुष्ठानों की ओर मुडऩा तर्कसंगत प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं (2.42-2.46) वेदों का बाहरी अर्थ बताकर इस जीवन और परलोक (स्वर्ग) दोनों में सुख का वादा करने वाले मूर्खों के शब्दों में नहीं फँसना चाहिए। वह उसे (2.45) द्वंद्वातीत और गुणातीत होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि वह आत्मवान

32. निश्चयात्मिका बुद्धि समत्व लाती है

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श्रीकृष्ण कहते हैं (2.41), कर्मयोग में, बुद्धि निश्चयात्मिका होती है और जो अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदोंवाली होती है। श्रीकृष्ण कहते हैं (2.48 और 2.38) कि समत्व ही योग है, जो दो ध्रुवों, जिनका सामना हम जीवन में करते हैं, जैसे सुख और दुख; जीत और हार; और लाभ और हानि का मिलन है।  कर्मयोग इन ध्रुवों को पार करने का मार्ग है, जो अंतत: एक निश्चयात्मिका बुद्धि में परिणत होता है। दूसरी ओर, एक अस्थिर बुद्धि हमें मन की शांति से वंचित कर देती है। हमारी सामान्य धारणा यह है कि जब हम आनंद, जीत और लाभ प्राप्त करते हैं तब मन की शांति अपने आप आ जाती है, लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग के अभ्यास से उत्पन्न एक निश्चयात्मिका बुद्धि हमें ध्रुवीयताओं को पार करने में मदद करके मन की शांति देती है। एक अस्थिर बुद्धि विभिन्न स्थितियों, परिणामों और लोगों को अलग तरह से देखती है। अपने कार्यस्थल पर, हम एक मापदंड अपने से नीचे के लोगों पर और दूसरा अपने से ऊपर के लोगों पर लागू करते हैं। बच्चों में समत्व विकसित नहीं हो पाता है जब वे देखते हैं कि परिवार में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए अलग-अल