34. कर्म प्राथमिक, कर्मफल नहीं


गीता के प्रतिष्ठित श्लोक 2.47 में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का ही अधिकार है, उसके परिणाम यानी कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। वह आगे कहते हैं कि कर्मफल हमारे किसी भी कार्य के लिए प्रेरणा नहीं होना चाहिए और यह भी कि, हमें अकर्म की ओर झुकना नहीं चाहिए। यह गीता का सबसे उद्धृत श्लोक है, क्योंकि जीवन के विभिन्न आयामों में इसे देखा जा सकता है।

श्रीकृष्ण इंगित करते हैं (7.21-7.22) कि श्रद्धा चमत्कार कर सकती है। इस श्लोक का सबसे आसान तरीका यह है कि श्रीकृष्ण पर श्रद्धा रखकर बिना इसके तर्क में गहराई से उतरे या बिना इसके विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण का प्रयास किए, अपने जीवन में इसे लागू करना चाहिए। हमें श्रीकृष्ण में अपनी श्रद्धा गहरी करनी चाहिए और उसका अभ्यास शुरू करना चाहिए। इस श्लोक के शाब्दिक अर्थ को व्यवहार में लाना ही हमें कर्मयोग के शिखर पर ले जा सकता है।

दूसरा पहलू यह है कि अपने कर्मों के परिणाम पर ध्यान केंद्रित करने से हम स्वयं कर्म से दूर हो जाएंगे और परिणामस्वरूप, कर्मफल से ही वंचित हो जाएंगे। जैसे एक छात्र द्वारा खराब तरीके से निष्पादित हुए कर्म यानी पढ़ाई कभी भी वांछित कर्म के फल जो कि अच्छा परीक्षा परिणाम है, नहीं दे सकता है। श्रीकृष्ण इस बात पर जोर देते हैं कि हमें किसी भी परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
तीसरा, कर्म वर्तमान क्षण में होता है और कर्मफल हमेशा भविष्य में होता है, जो कई संभावनाओं का संयोजन है।   श्रीकृष्ण हमेशा वर्तमान क्षण में रहने की सलाह देते हैं क्योंकि हमारे पास केवल वर्तमान पर नियंत्रण है परन्तु भविष्य या अतीत पर कोई नियंत्रण नहीं है।

दृष्टिकोण या समझ जो भी हो, इस श्लोक में सुख और दुख की कभी न खत्म होने वाली लहरों को पार करने में हमारी मदद करके हममें समत्व लाने की क्षमता है।

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