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Showing posts from August, 2022

17. चार प्रकार के ‘भक्त’

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               श्रीकृष्ण के अनुसार चार प्रकार के भक्त होते हैं।                 पहला भक्त जीवन में जिन कठिनाइयों और दुखों का सामना कर रहा है, उनसे बाहर आना चाहता है। दूसरा भौतिक संपत्ति और सांसारिक सुखों की इच्छा रखता है। अधिकांश भक्त; संस्कृति, लिंग, विश्वास, मान्यता आदि के बावजूद इन दो श्रेणियों में आते हैं।                     श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दो प्रकार के भक्त विभिन्न देवताओं की प्रार्थना और अनुष्ठान करते हैं। उसे इस तरह समझा जा सकता है कि वह जिस बीमारी से पीडि़त है उसके विशेषज्ञ चिकित्सक के पास जाता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि श्रद्धा के अनुरूप इन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। संक्षेप में, यह समर्पण का एक रूप है।                निम्नलिखित उदाहरण श्रद्धा को समझने में मदद करेगा। दो किसान जिनके खेत पास-पास हैं, वे अपने खेतों की सिंचाई के लिए एक कुआं खोदने का फैसला करते हैं। पहला किसान एक या दो दिन खुदाई करता और पानी न मिलने पर स्थान बदल देता और नए सिरे से खुदाई शुरू करता। दूसरा किसान लगातार उसी जगह खुदाई करता रहा। महीने के अंत तक पहले किसान के खेत में कई गड्ढे रह जाते

16. गुणातीत होना

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                           श्रीकृष्ण कहते हैं कि किसी कर्म का कोई कर्ता नहीं होता है। कर्म वास्तव में सत्व, रजो और तमो गुण, जो प्रकृति का हिस्सा हैं, के बीच परस्पर प्रभाव का परिणाम है।           श्रीकृष्ण अर्जुन को दुखों से मुक्त होने के लिए इन गुणों को पार करने की सलाह देते हैं। अर्जुन जानना चाहते हैं कि गुणातीत कैसे होते हैं और जब व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वह कैसा होता है।           गीता के नींव, जैसे द्वंद्वातीत, द्रष्टा और समत्व के बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि इन तीनों का संयोग ही गुणातीत है।                  श्रीकृष्ण के अनुसार, एक व्यक्ति जिसने गुणातीत की स्थिति प्राप्त कर ली है, वह यह महसूस करता है कि गुण आपस में प्रभाव डालते हैं और इसलिए, एक साक्षी बनकर रहता है। वह न तो किसी विशेष गुण के लिए तरसता है और न ही वह किसी अन्य के विरुद्ध है।           गुणातीत एक साथ द्वंद्वातीत भी है। सुख-दु:ख के ध्रुवों को समझकर वह दोनों के प्रति तटस्थ रहता है। वह प्रशंसा और आलोचना के प्रति तटस्थ है क्योंकि उसे पता है कि ये तीन गुणों के उत्पाद हैं।

15. समत्व

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    समत्व गीता की नींव जैसा है और इसलिए इसका वर्णन गीता में विभिन्न स्थानों पर किया गया है। भगवान    श्रीकृष्ण ने विभिन्न स्थानों पर समत्व - भाव , समत्व - दृष्टि और समत्व - बुद्धि की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। समत्व को समझना आसान है लेकिन अंत : करण में ग्रहण करना मुश्किल है। हमारे अंदर समत्व की मात्रा , हमारी आध्यात्मिक यात्रा में हमारी प्रगति का सूचक है। भौतिक क्षेत्र में , अधिकांश समाजों ने समत्व को सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता के रूप में स्वीकार किया है। श्रीकृष्ण समत्व के कई उदाहरण देते हुए कहते हैं कि विवेकशील व्यक्ति शिकार और शिकारियों ; सुख और दुख ; लाभ और हानि आदि को समान दृष्टि से देखते हैं। मनुष्यों के साथ कठिनाई यह है कि हम संस्कृति , धर्म , जाति , राष्ट्रीयता , नस्ल आदि जैसे कृत्रिम विभाजनों के आधार पर स्वयं को पहचानते हैं। इन विभाजनों को दूर करके दो अलग - अलग लोगों के साथ समान व्यवहार की क्षमता ही , समत्व की ओर पह

14. सत्व, तमो और रजो गुण

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  हम में से अधिकांश लोगों का मानना है कि हम अपने सभी कार्यों के कारक हैं और अपनी नियति के खुद जिम्मेदार हैं। गीता में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म प्रकृति जनित तीन गुणों के परस्पर प्रभाव से बनता है, न कि किसी कर्ता के कारण। प्रकृति से तीन गुण पैदा होते हैं और आत्मा को भौतिक शरीर के साथ बांधते हैं।  हम में से प्रत्येक में तीन गुण; सत्व, रजो और तमो अलग-अलग अनुपात में मौजूद हैं। सत्व गुण ज्ञान के प्रति लगाव है; रजो गुण कर्म के प्रति आसक्ति है और तमस अज्ञानता और आलस की ओर ले जाता है।  जैसे ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ का मेल दुनिया की हर वस्तु का उत्पादन करता है, उसी तरह तीनों गुणों का मेल हमारे स्वभाव और कार्यों के लिए जिम्मेदार है। हममें से प्रत्येक में एक गुण दूसरे गुणों पर हावी होने की प्रवृत्ति रखता है। वास्तव में, लोगों के बीच मेल मिलाप और कुछ भी नहीं बल्कि उनके गुणों के बीच मेल मिलाप है।  जिस तरह विद्युत चुंबकीय क्षेत्र में रखा गया चुंबक उसी क्षेत्र के साथ घूमता है। किसी गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में वस्तुएँ आकर्षित होती हैं। ऐसे कई भौतिक और रासायनिक गुण हैं। इसी तरह कर्म

13. साक्षी होना

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यदि एक शब्द संपूर्ण गीता का वर्णन कर सकता है, तो वह होगा दृष्टा यानी साक्षी, जो कई संदर्भों में इस्तेमाल होता है। इसकी समझ महत्वपूर्ण है क्योंकि हममें से अधिकांश लोग सोचते हैं कि सब कुछ हम ही करते हैं और स्थितियों को नियंत्रित करते हैं।  अर्जुन, जो कुरुक्षेत्र युद्ध के समय लगभग साठ वर्ष का था, ने एक अच्छा जीवन बिताया था और सभी तरह की विलासिता का आनंद लिया था। एक योद्धा के रूप में उसने कई युद्धों को जीता था। युद्ध के समय, उसने महसूस किया कि वह कर्ता है और उसे लगा कि वह अपने रिश्तेदारों और परिजनों की मृत्यु के लिए जिम्मेदार होगा, इस कारण युद्ध के मैदान में उसको विषाद हुआ। सम्पूर्ण गीता में भगवान श्रीकृष्ण उसे यह बताने का प्रयास करते हैं कि वह ‘कर्ता’ नहीं है। स्वाभाविक प्रश्न है कि: यदि मैं कर्ता नहीं हूँ, तो मैं क्या हूँ। भगवान गीता में समझाते हैं कि अर्जुन दृष्टा है, साक्षी है। 60 वर्षों के जीवन के अच्छे और बुरे अनुभवों के कारण, अर्जुन को इस विचार को समझना मुश्किल लगता है कि वह केवल एक साक्षी है, न कि कर्ता। केवल भगवान की श्रमसाध्य व्याख्या ही उसे इस तथ्य के बारे में आश्वस्

12. मन पर नियंत्रण

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 अ र्जुन मन की तुलना वायु से करता है और जानना चाहता है कि इसे कैसे नियंत्रित किया जाए , ताकि यह संतुलन बनाए रखे। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह निश्चित रूप से कठिन है लेकिन इसे वैराग्य के अभ्यास से प्राप्त किया जा सकता है। इंद्रियों द्वारा जुटाई गयी जानकारी को सुरक्षित और असुरक्षित में आंकने के लिए दिमाग का विकास किया गया है और ऐसा करने के लिये दिमाग स्मृति ( यादाश्त ) का उपयोग करता है। इस क्षमता ने हमें क्रमिक विकास के दौरान जीवित रहने और समृद्ध होने में मदद की। दिमाग की उसी क्षमता का उपयोग आंतरिक निर्णय के लिए भी किया जा सकता है , जिसे जागरूकता कहा जाता है। हम अपने विचारों और भावनाओं को अपने दिमाग में पुन : उपयोग करके उसकी फैसला लेने की क्षमता में वृद्धि ला सकते हैं। आज के आधुनिक युग में इसी तरह से फीडबैक का उपयोग कंप्यूटर के काम करने की क्षमता को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण इस आंतरिक शक्ति को अभ्

11. सुख का अनुसरण करता है दुख

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  द्वंद्वातीत अर्थात द्वैत को पार करना , गीता में एक और अचूक निर्देश है। श्रीकृष्ण अर्जुन को बार - बार विभिन्न संदर्भों में इस अवस्था को प्राप्त करने की सलाह देते हैं। सामान्य प्रश्न जो मानवता को चकित करता है वह यह है कि जब हम सुख प्राप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते हैं तब भी असुखद स्थिति या दुख हमारे पास कैसे आते हैं। अपने भीतर गहराई से देखने के बजाय , हम यह कहकर खुद को समेट लेते हैं कि शायद हमारे प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। हालाँकि , आशा के साथ - साथ अहंकार हमें सुख की खोज की प्रक्रिया को फिर से शुरू करने के लिए प्रेरित करता है और यह जीवन के अंत तक चलता रहता है। द्वंद्वातीत की समझ इस समस्या को सुलझाती है। व्यक्त दुनिया में , सब कुछ अपने बुनियादी रूप से विपरीत रिश्ते यानी द्वंद्व के तौर पर मौजूद है। जन्म का विपरीत ध्रुव मृत्यु है ; सुख का विपरीत ध्रुवीय दुख है ; हार का जीत ; लाभ का हानि ; जोडऩा का घटाना ; प्रशंसा