16. गुणातीत होना

 


                श्रीकृष्ण कहते हैं कि किसी कर्म का कोई कर्ता नहीं होता है। कर्म वास्तव में सत्व, रजो और तमो गुण, जो प्रकृति का हिस्सा हैं, के बीच परस्पर प्रभाव का परिणाम है।

        श्रीकृष्ण अर्जुन को दुखों से मुक्त होने के लिए इन गुणों को पार करने की सलाह देते हैं। अर्जुन जानना चाहते हैं कि गुणातीत कैसे होते हैं और जब व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वह कैसा होता है।

        गीता के नींव, जैसे द्वंद्वातीत, द्रष्टा और समत्व के बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि इन तीनों का संयोग ही गुणातीत है।  

            श्रीकृष्ण के अनुसार, एक व्यक्ति जिसने गुणातीत की स्थिति प्राप्त कर ली है, वह यह महसूस करता है कि गुण आपस में प्रभाव डालते हैं और इसलिए, एक साक्षी बनकर रहता है। वह न तो किसी विशेष गुण के लिए तरसता है और न ही वह किसी अन्य के विरुद्ध है।

        गुणातीत एक साथ द्वंद्वातीत भी है। सुख-दु:ख के ध्रुवों को समझकर वह दोनों के प्रति तटस्थ रहता है। वह प्रशंसा और आलोचना के प्रति तटस्थ है क्योंकि उसे पता है कि ये तीन गुणों के उत्पाद हैं। इसी तरह, वह मित्रों और शत्रुओं के प्रति तटस्थ है, यह महसूस करते हुए कि हम स्वयं के मित्र हैं और स्वयं के शत्रु भी हैं।

        भौतिक दुनिया ध्रुवीय है और यह दो अतियों के बीच झूलता है। यह भी सच है की झूलने के लिए एक लोलक (पेंडुलम) को भी एक स्थिर बिंदु की आवश्यकता होती है। भगवान श्रीकृष्ण उस स्थिर बिंदु पर पहुंचने का संकेत दे रहे हैं, जहां से झूलने का हिस्सा न बनते हुए सिर्फ द्रष्टा बनकर रहते हैं। 

        ‘गुणातीत’ सोना, पत्थर और मिट्टी को समान महत्व देता है। इसका अर्थ यह है कि वह एक को दूसरे से निम्न नहीं मानता। वह चीजों को वैसे ही महत्व देता है जैसे वे हैं, न कि दूसरों के मूल्यांकन के अनुसार। 

        श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि गुणातीत वह है जो कर्ता की भावना को त्याग देता है। यह तब होता है जब हम अपने अनुभवों के माध्यम से महसूस करते हैं कि चीजें अपने आप होती हैं और कर्ता का उसमें शायद ही कोई योगदान है।


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