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Showing posts from June, 2023

79. समय से परे

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श्रीमद्भगवद्गीता दो स्तरों का एक सुसंगत समिश्रण है और हमें गीता को समझने के लिए इसके बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है। कभी-कभी श्रीकृष्ण मित्र या मार्गदर्शक के रूप में अर्जुन से व्यवहार करके मनुष्यों के सामने आने वाली दैनिक समस्याओं को समझाते हैं। कभी-कभी वह परमात्मा के रूप में आते हैं और उस अवस्था में वह कहते हैं कि मैंने यह अविनाशी योग विवस्वत को दिया था , जो उत्तराधिकार में राज-ऋषियों को सौंप दिया गया था ( 4.1) और समय के साथ यह योग लुप्त हो गई थी ( 4.2) । विवस्वत का अनुवाद सूर्य-भगवान के रूप में किया गया है , जो प्रकाश का एक रूपक है। यह स्वीकार किया जाता है कि इस ब्रह्माण्ड की शुरुआत प्रकाश से हुई और बाद में पदार्थ का गठन हुआ। मगर श्रीकृष्ण संकेत कर रहे हैं कि वे प्रकाश से भी पहले थे। श्रीकृष्ण राज-ऋषियों को संदर्भित करते हैं जो समय के विभिन्न बिंदुओं पर प्रबुद्ध लोगों के अलावा और कुछ नहीं हैं। यह ज्ञान लुप्त हो गया क्योंकि समय के साथ यह एक अनुभवात्मक स्तर से कर्मकांड या अनुष्ठान में बदल गया। अभ्यास कम और उपदेश अधिक हो गया एवं धर्मों और संप्रदायों का आकार ले ल

100. प्रतिक्रियात्मकता से सक्रियता तक

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  जीवन एक दोतरफा प्रक्रिया है। हमें विभिन्न उत्तेजनाएं प्राप्त होती हैं और हम उनका जवाब देते रहते हैं। इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ , सुनता हुआ , स्पर्श करता हुआ , सूंघता हुआ , भोजन करता हुआ , गमन करता हुआ , (5.8) सोता हुआ , स्वास लेता हुआ , बोलता हुआ , त्यागता हुआ , ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता हुआ और मूँदता हुआ भी , सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं - इस प्रकार समझकर नि:संदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’’ ( 5.9) । इस अस्तित्वगत श्लोक में , श्रीकृष्ण सत्य के ज्ञाता के चरम अनुभव का वर्णन कर रहे हैं। जैसा कि हम नियमित रूप से प्रशंसा और अपमान से उत्पन्न होने वाली भावनाओं का अनुभव करते हैं , हम देखते हैं कि प्रशंसा हमें खुद को भुला देती है जैसे कि कहावत में कौवा अपनी गायन क्षमता के बारे में लोमड़ी से प्रशंसा सुनकर अपने मुँह के अंदर का माँस गिरा देता है। इसी तरह , जब आलोचना की जाती है , तो आलोचना की तीव्रता और आलोचक की ताकत के आधार पर हमारी प्रतिक्रिया मौन से लेकर मौखिक या फिर शारीरिक तक भि

78. इच्छा की शक्ति

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  इच्छाओं से भरे तुलसीदास अपनी नवविवाहित पत्नी से मिलने के लिए बेताब थे। वह एक लाश को लकड़ी का लट्ठा समझकर रात में नदी पार कर गए ; दीवार पर चढऩे के लिए एक सांप को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया , केवल पत्नी से फटकार सुनने के लिए कि भगवान राम से समान जुनून हो तो वे बेहतर होंगे। उनकी पत्नी ने कहा , जितना प्रेम हाड़ माँस से बने मेरे इस शरीर से है , यदि उतना प्रेम श्रीराम के नाम से होता तो आप कब के इस जीवन रूपी नैया को पार लगा चुके होते। वे उसी क्षण परिवर्तित हो गए और वे श्रद्धेय ‘राम चरित मानस’ के लेखक बन गए। तुलसीदास की कहानी हमें इंद्रियों को अनुशासित करके इच्छा को नाश करने के लिए श्रीकृष्ण की सलाह को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है ( 3.41) । इच्छा के दो पहलू हैं- पहला साहस , दृढ़ संकल्प और जोश की ऊर्जा , जो हमारे अंदर पैदा होती है और दूसरा है उसकी दिशा। जब यह ऊर्जा बाहर की तरफ बहती है , यह कामुक सुख और संपत्ति की तलाश में नष्ट हो जाता है। जब श्रीकृष्ण हमें इच्छाओं को नष्ट करने के लिए कहते हैं , तो वे नहीं चाहते कि हम इस ऊर्जा को नष्ट कर दें , बल्कि यह चाहते हैं कि

77. दर्पण जैसा साक्षी बनें

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  श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं , ‘‘ जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल (धूल) से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार   कोख से भ्रूण ढका रहता है , वैसे ही वासना के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है। इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप से मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है और ज्ञानियों के लिए यह नित्य वैरी है’’ ( 3.38-3.39) । इससे पहले श्रीकृष्ण ने कहा था कि गुण हमें सम्मोहित करने की क्षमता रखते हैं। रजोगुण से उत्पन्न इच्छा भी यही करती है। उन्होंने आगे विस्तार से बताया कि , ‘‘ इन्द्रियाँ मन और बुद्धि - ये सब इसके निवास स्थान कहे जाते हैं। यह काम , मन , बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है’’ ( 3.40) । एक दर्पण साक्षी का आदर्श उदाहरण है। इसका ज्ञान बिना किसी वर्गीकरण के , इसके सामने लाई गई स्थितियों और लोगों , दोनों को प्रतिबिंबित करना है। इसमें न तो अतीत का बोझ है और न ही भविष्य से कोई अपेक्षा है और यह हमेशा वर्तमान में रहता है। जब यह ज्ञान धूल से ढक जाता है तो इसकी प्रभावशीलता कम हो जाती है। जबकि रूपक दर्पण हमारा वास्तविक स्वरूप है , ग

76. वासना से सावधान रहें

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अर्जुन पूछते हैं , ‘‘ तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी जबरन से लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है’’ ( 3.36)? यह सबसे आम सवाल है जो जागरूकता की पहली किरण से उठता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध में परिवर्तित होता है , यह बहुत भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है , इसको ही तू इस विषय में वैरी जान’’ ( 3.37) । कर्म के प्रति आसक्ति रजोगुण की पहचान है , जो इच्छा के कारण होती है। जैसा कि एक कार के मामले में होता है , गति रजो गुण से पैदा हुआ एक लक्षण है और इसे प्राप्त करने के लिए त्वरक (एक्सेलरेटर) एक उपकरण है। इसी प्रकार धीमा होना या जड़ता तमस का स्वभाव है और इसके लिए ब्रेक एक यंत्र है। चालक सत्व गुण का प्रतिनिधित्व करता है जो एक सुगम और सुरक्षित सवारी के लिए त्वरण और ब्रेकिंग में संतुलन बनाए रखता है। स्पीडोमीटर जागरूकता का एक उपकरण है। यदि संतुलन बिगड़ गया तो दुर्घटना निश्चित है। काम-वासना (हवस) भी हमारे जीवन में संतुलन खोने के अलावा और कुछ नहीं है। हम खुशी प्राप्त करने के लिए इतनी ऊर्जा का निवेश करते ह

75. धर्म एक है

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  श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए परधर्म से गुणरहित स्वधर्म अति उत्तम है। स्वधर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और परधर्म भय को देने वाला है’’ ( 3.35) । यह जटिल श्लोक हमारे मन में स्पष्टता से अधिक संदेह पैदा करता है। एक अर्थ में यह श्लोक कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन के लिए विशुद्ध रूप से प्रासंगिक है। अर्जुन के पास उस क्षण तक योद्धा धर्म है और अगले क्षण में संत बनने की इच्छा रखता है। इस परिवर्तन की संभावना नहीं है और श्रीकृष्ण इस श्लोक में यही संकेत कर रहे हैं। जबकि धर्म एक है , हम इसे अलग-अलग तरीकों से समझते हैं। जैसे कहावत के पांच अंधे एक ही हाथी को अपने स्पर्श से अलग-अलग तरह से देखते हैं। यदि उनमें से कोई इसे दांत के रूप में देखता है , तो वह उसका स्वधर्म है। श्लोक आगे संकेत करता है कि जो व्यक्ति इसे दांत के रूप में मानता है उसे अपने पथ का अनुसरण करते रहना चाहिए , न कि उस व्यक्ति के सुंदर रूप से प्रस्तुत विवरण को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए जो इसे पैर या पूंछ के रूप में मानता है। अगला सवाल यह आता है कि किसकी धारणा सही है। वे सभी अपने अपने