77. दर्पण जैसा साक्षी बनें
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं, ‘‘जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल (धूल) से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार कोख से भ्रूण ढका रहता है, वैसे ही वासना के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है। इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप से मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है और ज्ञानियों के लिए यह नित्य वैरी है’’ (3.38-3.39)।
इससे पहले श्रीकृष्ण ने कहा था कि गुण हमें सम्मोहित करने
की क्षमता रखते हैं। रजोगुण से उत्पन्न इच्छा भी यही करती है। उन्होंने आगे
विस्तार से बताया कि, ‘‘इन्द्रियाँ मन और बुद्धि - ये सब इसके निवास स्थान कहे जाते
हैं। यह काम, मन, बुद्धि और
इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है’’ (3.40)।
एक दर्पण साक्षी का आदर्श उदाहरण है। इसका ज्ञान बिना किसी
वर्गीकरण के, इसके सामने लाई
गई स्थितियों और लोगों, दोनों को प्रतिबिंबित करना है। इसमें न तो अतीत का बोझ है
और न ही भविष्य से कोई अपेक्षा है और यह हमेशा वर्तमान में रहता है। जब यह ज्ञान
धूल से ढक जाता है तो इसकी प्रभावशीलता कम हो जाती है।
जबकि रूपक दर्पण हमारा वास्तविक स्वरूप है, गंदगी हमारे
पिछले प्रेरित कार्यों और इच्छाओं के कारण एकत्रित हमारा पिछला संचय है। इसी
प्रकार जानने की क्षमता ही हमारा वास्तविक स्वरूप है, जो असीम है।
लेकिन हम सीमित ज्ञान से ही तादात्म्य
स्थापित कर लेते हैं। संक्षेप में, गंदगी हमारे अतीत का संचय है जिसमें ज्ञान, सुखद या अप्रिय
यादें और निर्णय शामिल हैं जो हम पर हावी होते हैं। इसी तरह, इच्छाएं हमारी
आत्मा के ज्ञान को ग्रहण लगाकर आत्मा को भ्रमित करती हैं।
कार्यस्थल और परिवार में हो रही बातचीत को ध्यान से देखने
पर पता चलता है कि हम अपने अतीत के भारी बोझ को ढोते रहते हैं और वर्तमान क्षण की
सराहना करना मुश्किल पाते हैं। इसके परिणामस्वरूप कार्यस्थल में उत्पादकता कम हो
जाती है और रिश्तों में गलतफहमी पैदा हो जाती है।
अतीत में जीना दुर्गति है और कुंजी यह है कि अतीत हमें अपना गुलाम न बना पाए। ऐसा करने के लिए, हम अतीत को एक उपकरण के रूप में तब तक उपयोग कर सकते हैं जब तक कि हम चेतना के वर्तमान क्षण के साथ खुद को स्थायी रूप से संरेखित नहीं कर लेते।
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