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Showing posts from July, 2023

85. कर्म, अकर्म और विकर्म

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‘ एक्ट ऑफ कमीशन एंड ओमिशन’ यानी कृतकार्य या भूलचूक आमतौर पर कानूनी शब्दावली में इस्तेमाल किया जाने वाला एक वाक्यांश है। उचित समय पर ब्रेक लगाने में विफल रहने वाले चालक से चूक हुई जिसके परिणामस्वरूप दुर्घटना हुई। चूक या अकर्म का यह कार्य दुर्घटना के कर्म की ओर ले जाता है। उदाहरण के लिये , कोई भी क्रिया करते समय , हम अपने लिए उपलब्ध कई अलग-अलग विकल्पों में से किसी एक का चुनाव करते हैं। जब हम इनमें से किसी एक विकल्प का प्रयोग करके कार्य करते हैं , तो अन्य सभी विकल्प हमारे लिए अकर्म बन जाते हैं , जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक कर्म में अकर्म छिपा होता है। ये उदाहरण हमें श्रीकृष्ण के गहन कथन को समझने में मदद करते हैं कि ‘‘जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है , वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है’’ ( 4.18) । श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ कर्म क्या है और अकर्म क्या है ?- इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं’’ ( 4.16) । वह आगे कहते हैं कि , ‘‘ कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर

84. मुमुक्षुओं के तरीके

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  श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है , वह भी कर्मों से नहीं बँधता’’ ( 4.14) । यह श्रीकृष्ण के शब्दों को पुष्ट करता है कि कर्मों पर हमारा अधिकार है , लेकिन कर्मफल पर नहीं ( 2.47) । परमात्मा के रूप में , श्रीकृष्ण भगवान भी उसी का अनुसरण करते हैं और हमें बताते हैं कि वह कर्ता नहीं है , भले ही उन्होंने मनुष्यों के बीच गुणों और कर्मों के आधार पर विभिन्न विभाजनों का निर्माण किया , जो कि कर्तापन की अनुपस्थिति का संकेत देता है ( 4.13) । उन्होंने आगे कहा , ‘‘ पूर्वकाल में मुमुक्षुओं (मुक्त आत्मा) ने भी इस प्रकार जान कर ही कर्म किये हैं। इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर’’ ( 4.15) । अपने जीवन के सामान्य क्रम में , हम वांछित कर्मफल प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं। हालाँकि , जब हमें कर्मफल छोडऩे के लिए कहा जाता है , तो हम कर्मों को भी छोड़ देते हैं। श्रीकृष्ण यहां त्याग के लिए एक पूरी तरह से अलग प्रतिमान प्रकट करते हैं जब वे परामर्श देते है

83. असत्य सत्य पर पनपता है

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  जैसा कि हम जानते हैं , यह संसार सत्य और असत्य दोनों से मिलकर बना है। सावधानीपूर्वक परीक्षण करने से पता चलता है कि , या तो हमारी परिस्थितियों के कारण या हमारी इंद्रियों और मन की सीमाओं के कारण , असत्य और कुछ नहीं बल्कि सत्य की गलत व्याख्या है। प्रसिद्ध रस्सी और सांप सादृश्य में , रस्सी सत्य है और सांप असत्य है जो रस्सी के बिना मौजूद नहीं हो सकता। लेकिन , जब तक यह बोध नहीं हो जाता , तब तक हमारे सभी विचार और कार्य असत्य पर आधारित होंगे। कुछ ऐसे झूठ इस संसार में पीढिय़ों तक जारी रहने की सम्भावना है। इसी तरह , यदि हम किसी भी टेकनोलॉजी को ‘सत्य’ मानते हैं , तो उसका हानिकारक प्रयोग ‘असत्य’ है। लाउडस्पीकर का इस्तेमाल अच्छाई का प्रचार करने या इसके विपरीत भोले-भाले लोगों को हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी किया जा सकता है। इसी तरह , आज का सोशल मीडिया असत्य बन जाता है , जब इसका इस्तेमाल द्वेषपूर्ण ढंग से किया जाता है। श्लोक 4.13 को समझने के लिए सत्य और असत्य की यह समझ आवश्यक और उपयोगी है जहां श्रीकृष्ण कहते हैं , मैंने गुणों और कर्मों के भेद के आधार पर चार वर्ण बनाए हैं , लेकिन

82. जैसी करनी, वैसी भरनी

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  भौतिक इकाइयां पूर्वानुमेय व्यवहार और गुणों द्वारा नियंत्रित होती हैं। श्रीकृष्ण सर्वशक्तिशाली अव्यक्त और प्रकट के बीच संबंधों में अंतर्दृष्टि देते हुए कहते हैं , ‘‘ जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं , मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं’’ ( 4.11) । सबसे पहले , यह भगवान की ओर से एक आश्वासन है कि हम किसी भी मार्ग का अनुसरण करते हैं और भले ही ये मार्ग कितने ही विरोधाभासी हों , वे सभी अव्यक्त परमात्मा के मार्ग हैं। दूसरे , भगवान एक बहुआयामी दर्पण की तरह प्रतिक्रिया करते हैं जो हमारी भावनाओं , विचारों और कार्यों को प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित करते हैं। तीसरा , जब हम एक बीज बोते हैं , तो उसे एक पेड़ की पूर्ण क्षमता प्राप्त करने में समय लगता है और यह समय अंतराल हमें परमात्मा के प्रतिध्वनि के इस सिद्धांत को पूरी तरह से समझने से रोकता है। अगर हम अपने जीवन को बिना शर्त प्यार और श्रद्धा से भर देते हैं , तो प्यार और श्रद्धा अनिवार्य रूप से हमारे जीवन को आनंदमय बनाने के लिए वापस आ जाती है। यदि हम क्रोध , भय , घृणा ,

81. ‘मैं’ समावेश है

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  गीता में अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं , लेकिन अर्थ और उपयोग के सन्दर्भ अलग हैं। अर्जुन का ‘मैं’ उनके भौतिक शरीर , संपत्ति , भावनाओं और विश्वासों को दर्शाता है जो सिर्फ उनके परिवार , दोस्तों और रिश्तेदारों तक सीमित हैं। हमारी स्थिति अर्जुन से भिन्न नहीं है। हम कुछ चीजों को विशेष रूप से अपना मानते हैं और कुछ को नहीं मानते हैं। जब श्रीकृष्ण ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं तो यह समावेशी होता है। हम इन्द्रियों की सीमा की वजह से इन्द्रिय विषयों में अंतर्विरोध और ध्रुवीयता महसूस करते हैं और श्रीकृष्ण की ‘मै’ं में ये सारे अंतर्विरोध शामिल होते हैं। श्रीकृष्ण उसी क्रम में कहीं और कहते हैं , ‘‘ मैं जन्म के साथ-साथ मृत्यु भी हूँ।’’ जबकि श्रीकृष्ण महासागर हैं , हम उसी सागर के बूंद हैं। लेकिन अहंकार के कारण हम अपने आप को अलग मानते हैं। जब एक बूंद अपने अस्तित्व को त्याग कर सागर से मिल जाती है , तो वह सागर बन जाती है। श्रीकृष्ण इसे इंगित करते हैं जब वे कहते हैं कि , ‘‘ मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक हैं , इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है , वह शरीर को त

80. माया की अभिव्यक्ति

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जिस प्रकार पहिये को घूमने के लिए एक स्थिर या अपरिवर्तनशील चाक की आवश्यकता होती है , उसी तरह निरंतर बदलते भौतिक संसार को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए शांत और परिवर्तनहीन अव्यक्त अस्तित्व की आवश्यकता होती है। अर्जुन , हमारी तरह , प्रकट मानव शरीर के स्तर पर है और अपने रिश्तेदारों की मृत्यु की चिंता कर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण , जो उस समय मानव रूप में थे , बताते हैं कि कभी-कभी अव्यक्त को प्रकट रूप धारण करने की आवश्यकता क्यों और कैसे होती है। वे कहते हैं , ‘‘ मैं अजन्मा , शाश्वत और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ। अपनी प्रकृति को अधीन करते हुए , मैं अपनी योग माया से अवतार लेता हँू’’ ( 4.6) । माया के माध्यम से , जो केवल एक विचार है , अव्यक्त प्रकट होता है , जैसा कि परमात्मा करते हंै। अंतर केवल चेतना , इच्छाओं एवं करूणा के स्तर पर है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं , ‘‘ जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है , तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ( 4.7) । साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये , पापकर्म करनेवालों का विनाश करने के