80. माया की अभिव्यक्ति


जिस प्रकार पहिये को घूमने के लिए एक स्थिर या अपरिवर्तनशील चाक की आवश्यकता होती है, उसी तरह निरंतर बदलते भौतिक संसार को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए शांत और परिवर्तनहीन अव्यक्त अस्तित्व की आवश्यकता होती है। अर्जुन, हमारी तरह, प्रकट मानव शरीर के स्तर पर है और अपने रिश्तेदारों की मृत्यु की चिंता कर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण, जो उस समय मानव रूप में थे, बताते हैं कि कभी-कभी अव्यक्त को प्रकट रूप धारण करने की आवश्यकता क्यों और कैसे होती है।

वे कहते हैं, ‘‘मैं अजन्मा, शाश्वत और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ। अपनी प्रकृति को अधीन करते हुए, मैं अपनी योग माया से अवतार लेता हँू’’ (4.6)। माया के माध्यम से, जो केवल एक विचार है, अव्यक्त प्रकट होता है, जैसा कि परमात्मा करते हंै। अंतर केवल चेतना, इच्छाओं एवं करूणा के स्तर पर है।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ (4.7)। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पापकर्म करनेवालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ’’ (4.8)

गुरुजन अक्सर इन श्लोकों को उद्धृत करते हैं ताकि सभी को यह विश्वास दिलाया जा सके कि परमात्मा धार्मिक लोगों की रक्षा के लिए निकट हैं। एक साधारण शाब्दिक अर्थ इंगित करता है कि जब भी धर्म या धार्मिकता का ह्रास होता है और अधर्म या बुराई का उदय होता है, तो वह अवतार के रूप में पृथ्वी पर आएँगे।

गहरे स्तर पर, प्रश्न उठता है कि धर्म और अधर्म क्या है; कौन साधू है और कौन दुष्ट; उन्हें क्या अलग करता है?

साधुओं और दुष्टों के मामले में उनके बजाय उनकी संतता या दुष्टता के गुण को संरक्षित या नष्ट करने की आवश्यकता है। इसी तरह, धर्म और अधर्म को उस शाश्वत अवस्था की ओर या उससे दूर यात्रा की दिशा के रूप में लिया जा सकता है। मार्ग में दिशा परिवर्तन के लिए परमात्मा की सहायता की आवश्यकता होती है।

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