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Showing posts from December, 2022

41. आंतरिक यात्रा के लिए सुसंगत बुद्धि

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  हमारे भीतरी और बाहरी हिस्सों का मिलन ही योग है। इसे कर्म , भक्ति , सांख्य , बुद्धि जैसे कई मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के आधार पर उसके अनुकूल मार्गों से योग प्राप्त कर सकता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर , क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं (2.49) । इससे पहले , श्रीकृष्ण ने (2.41) कहा कि कर्मयोग में , बुद्धि सुसंगत है और जो अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदोंवाली होती है। एक बार जब बुद्धि सुसंगत हो जाती है , जैसे एक आवर्धक कांच प्रकाश को केंद्रित करता है , तो वह किसी भी बौद्धिक यात्रा में सक्षम होता है। स्वयं की यात्रा सहित किसी भी यात्रा में दिशा और गति शामिल होती है। श्रीकृष्ण का यहाँ बुद्धि योग का संदर्भ अन्तरात्मा की ओर यात्रा की दिशा के बारे मे

40. कर्तापन की भावना को छोडऩा

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श्लोक 2.48 में, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तुम आसक्ति / सङ्गं को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्मों को कर। यह समत्व ही योग कहलाता है। दूसरे शब्दों में, हम जो कुछ भी करते हैं वह सामंजस्यपूर्ण होगा जब हम ध्रुवीयताओं के साथ पहचान करना बंद कर देंगे। हमारे दैनिक जीवन में निर्णयों और विकल्पों की एक श्रृंखला बनी रहती है। हमेशा निर्णय लेने वाला दिमाग उपलब्ध विकल्पों में से चुनता रहता है और श्रीकृष्ण उन्हें (2.38) सुख/दुख, लाभ/हानि, जीत/हार और सफलता/असफलता में वर्गीकृत करते हैं। समत्व का मतलब है इन ध्रुवों को समान मानना, जिसे आमतौर पर उन्हें पार करने के रूप में संदर्भित किया जाता है। जब यह अहसास गहरा होता है, तो मन शक्तिहीन हो जाता है और चुनाव रहित जागरूकता प्राप्त कर लेता है। जब हम नींद में या नशे में होते हैं तो विभाजन करने की क्षमता सहज ही खो देते हैं। लेकिन विभाजन करने के काबिल होने के बावजूद विभाजन नहीं करना ही समत्व है। यह केवल एक प्रेक्षक/दृष्टा बनकर वर्तमान क्षण में जीवित होना है। कर्म करते समय समता प्राप्त करने का व्

39. दोहराव प्रभुत्व की कुंजी

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  कर्ण और अर्जुन कुंती से पैदा हुए थे लेकिन अंत में विपरीत पक्षों के लिए लड़े। कर्ण को शाप के कारण अर्जुन के साथ महत्वपूर्ण लड़ाई के दौरान उसका युद्ध का ज्ञान और अनुभव उसके बचाव में नहीं आया। वह युद्ध हार गया और मारा गया। यह स्थिति हम सभी पर लागू होती है क्योंकि हम कर्ण की तरह हैं। हम अपने जीवन में बहुत कुछ सीखते हैं , ज्ञान और अनुभव प्राप्त करते हैं लेकिन महत्वपूर्ण क्षणों में हम जागरूकता के बजाय अपनी प्रवृत्ति के आधार पर सोचते और कार्य करते हैं , क्योंकि हमारी जागरूकता की पहुँच आवश्यक सीमा से कम है। श्रीकृष्ण इस बात से पूरी तरह अवगत हैं और गीता में विभिन्न कोणों से वास्तविकता और सत्य की बार - बार व्याख्या करते हैं , ताकि जागरूकता गहराई तक जाए और आवश्यक सीमा को पार कर जाए। गीता इस बात पर जोर देती है कि हमारे दो हिस्से हैं - एक आतंरिक और दूसरा बाहरी , जो एक नदी के दो किनारे की तरह है। आमतौर पर हमारी पहचान बहरी हिस्से से ह

38. क्रिया और प्रतिक्रिया

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  श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का अधिकार है लेकिन कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम अकर्म की ओर बढ़ें , जो निष्क्रियता या परिस्थितियों की प्रतिक्रिया मात्र हैं। यद्यपि श्रीकृष्ण अकर्म शब्द का प्रयोग करते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ निष्क्रियता है , संदर्भ से पता चलता है कि यह प्रतिक्रिया को दर्शाता है। श्लोक 2.47 जागरूकता और करुणा की बात करता है ; जागरूकता वह है जिसमें कर्म और कर्मफल अलग - अलग हैं और दूसरों और खुद के प्रति करुणा का भाव हो। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म किए बिना , हमारा जीवित रहना असंभव है (3.8) क्योंकि भौतिक शरीर के रखरखाव के लिए खाने आदि जैसे कर्मों की आवश्यकता होती है। सत्व , तमो और रजो गुण हमें लगातार कर्म (3.5) की ओर ले जाते हैं। इसलिए , अकर्म के लिए शायद ही कोई जगह हो। यदि हम समाचारों से गुजरते समय अपनी प्रवृत्तियों पर गौर करते हैं तो महसूस करेंगे कि जब हम अपने साझा मिथकों और विश्वा

37. वही अर्जुन वही बाण

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  ‘ वही अर्जुन वही बाण ’ , यह एक मुहावरा है। इसका प्रयोग अक्सर ऐसी स्थिति का वर्णन करने के लिए किया जाता है जब एक सफल / सक्षम व्यक्ति काम पूरा करने में विफल रहता है। एक योद्धा के रूप में अर्जुन कभी युद्ध नहीं हारे। अपने जीवन के उत्तरार्ध में , वह एक छोटी सी लड़ाई हार गए जिसमें उन्हें परिवार के कुछ सदस्यों को डाकुओं के समूह से बचाना था। वह इस स्थिति को अपने भाई को समझाते हैं और कहते हैं , ‘‘ मुझे नहीं पता कि क्या हुआ। मैं वही अर्जुन हूं और ये वही बाण थे जिन्होंने कुरुक्षेत्र का युद्ध जीता था , लेकिन इस बार मेरे बाणों को न तो अपना लक्ष्य मिला और न ही उनमें शक्ति थी। ’’ उन्होंने समझाया कि उन्हें भागना पड़ा और परिवार की रक्षा नहीं कर सके। जीवन के अनुभव हमें बताते हैं कि ऐसा हममें से किसी के साथ भी हो सकता है। कई बार , प्रतिभाशाली खिलाड़ी कुछ समय के लिए अपना फॉर्म खो देते हैं। एक अभिनेता , गायक असफल हो जाता है। इसका दोष भाग्य , ब