36. कर्म फल वो नहीं जो प्रतीत होता है

 


हम आमतौर पर यह समझने के लिए समक्ष नहीं हैं कि वर्तमान में हम जिस कर्मफल की इच्छा रखते हैं, वह आगे चलकर हमारे लिए अच्छा होगा या नहीं। जैसा कि एक असफल रिश्ते में होता है, एक समय में एक युगल एक साथ रहना चाहता था, लेकिन कुछ समय बाद वे अलग होना चाहते हैं। वास्तव में मनुष्य में आज जो बहुत पछतावा है वह उन कर्मों के फल प्राप्त होने के कारण है, जिसकी उसने तीव्र इच्छा की थी और जो समय के साथ विनाशकारी साबित हुए।

इसके विपरीत, सामान्य अनुभव के अनुसार, कई लोगों को ऐसा लगता है की उनके साथ जो सबसे अच्छी बात हुई, वह यह थी कि अतीत में किसी समय उनके द्वारा इच्छित कर्मफल उनको प्राप्त नहीं हुआ।

जीवन से मिले ये अनुभव कुछ समय के बाद हमें गीता में प्रतिष्ठित श्लोक 2.47 को समझने में मदद करेंगे, जहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का अधिकार है लेकिन कर्मफल पर कोई अधिकार नहीं है।

इन अनुभवों का उपयोग इस श्लोक को द्वंद् के माध्यम से देखने के लिए किया जा सकता है। दुनिया द्वंद् है और हर चीज उसके विपरीत अवस्था में भी मौजूद है। यही बात कर्मफल पर भी लागू होती है।

पहले मामले में, एक खुशी (सुख/जीत/लाभ) ध्रुवीयता समय के साथ दर्द (दुख/पराजय/हानि) ध्रुवीयता में बदल गई। दूसरी घटना में ठीक इसके विपरीत हुआ।

पूरे गीता में श्रीकृष्ण का जोर इन चिरस्थायी ध्रुवों के बारे में जागरूक होकर उन्हें पार करने पर है। कर्मफल की इच्छा ऐसी ही एक ध्रुवता है जिसे स्वयं को इससे जोडक़र पार किया जाना चाहिए।

सृष्टिकर्ता (चेतना, चैतन्य, रचनात्मकता) को इस ब्रह्मांड को 13.5 अरब से अधिक वर्षों से चलाने का अनुभव है। जब हमारे कर्मफल की बात आती है तो वे कैसे गलती कर सकते है? निश्चित रूप से, वह नहीं करेंगे। हमें वह मिलता है जिसकी हमें आवश्यकता होती है या जिसके हम हकदार होते हैं, लेकिन वह नहीं जो हम चाहते हैं।


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