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Showing posts from April, 2023

66. समर्पण या संघर्ष

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जीने के दो तरीके हैं। एक है समर्पण और दूसरा संघर्ष। समर्पण युद्ध में पराजितों के समर्पण की तरह असहाय समर्पण नहीं है , यह जागरूकता और सक्रिय स्वीकृति के साथ समर्पण है। दूसरों से आगे रहने की सोच ही संघर्ष है। जो हमें दिया गया है उससे अधिक पाने के लिए ; और हमारे पास जो कुछ है उससे अलग कुछ पाने की कोशिश ही संघर्ष है। दूसरी ओर , समर्पण हर जीवित क्षण के लिए कृतज्ञता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ यदि कोई इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करता है और सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता तो उसका जीवन व्यर्थ है’’ ( 3.16) । इन्द्रियों की तृप्ति के पथ पर चल रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह संघर्ष का जीवन है , क्योंकि इन्द्रियां कभी तृप्त नहीं हो सकती। यह संघर्ष , तनाव , चिंता और दु:ख लाता है जो व्यर्थ का जीवन है। श्रीकृष्ण सृष्टिचक्र को वर्षा के उदाहरण से समझाते हैं ( 3.14) । बारिश पानी की निस्वार्थ क्रिया का रूप है जहां पानी वाष्पित होकर निस्वार्थ रूप से बारिश के रूप में बरसता है। ऐसा निस्वार्थ कर्म ही सर्वोच्च शक्ति का स्रोत है ( 3.15) । निस्वार्थ कर्मों के चक्र पर चलना ही समर्पण का

65. नि:स्वार्थ क्रियाएँ सर्वोच्च शक्ति रखती हैं

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जल पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक है और श्रीकृष्ण नि:स्वार्थ कार्यों को समझाने के लिए वर्षा का उदाहरण देते हैं ( 3.14) । मूल रूप से , बारिश एक चक्र का एक हिस्सा है जहां गर्मी के कारण पानी वाष्पित हो जाता है , उसके बाद बादल बनते हैं। सही परिस्थितियों में यह बारिश के रूप में वापस आ जाता है। इस प्रक्रिया में निस्वार्थ कार्य शामिल हैं और श्रीकृष्ण उन्हें यज्ञ कहते हैं। महासागर पानी को भाप में परिवर्तित करके बादल बनाने में मदद करता है और बादल बारिश में बदलने के लिए खुद को बलिदान कर देते हैं। ये दोनों कर्म यज्ञरूपी नि:स्वार्थ कर्म हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि यज्ञ की नि:स्वार्थ क्रिया सर्वोच्च वास्तविकता या सर्वोच्च शक्ति रखती है ( 3.15) । शुरुआत में , इस शक्ति का उपयोग करके ईश्वर ने सृष्टि की रचना की ( 3.10) और सभी को , यह सलाह दी कि , इसका इस्तेमाल करके खुद को आगे बढ़ाए ( 3.11) । यह और कुछ नहीं बल्कि यज्ञ की नि:स्वार्थ क्रिया के माध्यम से सर्वोच्च वास्तविकता के साथ खुद को संरेखित करना है और उसकी शक्ति का दोहन करना है। बारिश की इस परस्पर जुड़ी प्रक्रिया में , यदि बाद

64. हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ करें

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श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ तू नियत कर्तव्य कर्म कर ; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा’’ ( 3.8) । मानव शरीर के अस्तित्व के लिए भोजन का संग्रह और उपभोग जैसी क्रियाएं आवश्यक हैं। इसके अलावा , मानव शरीर में कई अंग , प्रणालियां और रसायन होते हैं जो नियमित रूप से हजारों आंतरिक क्रियाएं करते हैं। यहां तक कि अगर उनमें से कुछ एक छूट जाये , तो सम्बद्धता खो जाएगी और शरीर पीडि़त होगा या नष्ट हो जाएगा। उस अर्थ में , निष्क्रियता से शरीर का रखरखाव संभव नहीं होगा। श्रीकृष्ण नियत कर्मों को करने की बात करते हैं , जो एक जटिल अवधारणा है। पवित्र ग्रंथों में दिए गए अनुष्ठानों और समाज द्वारा हम पर थोपे गए कर्तव्य को आमतौर पर नियत कार्यों के रूप में लिया जाता है। लेकिन यह दोनों ही श्रीकृष्ण भगवान के सन्देश को परिभाषित करने से चूक जाते हैं। हमारा दायित्व भौतिक दुनिया में अपनी उच्चतम क्षमता को प्राप्त करना है ; जैसे एक छोटे से बीज का विशाल वृक्ष बनना ; जैसे जीन में निहित निर्देशों को क्रियान्वित करके एक एकल कोशिका क

63. मिथ्या और दम्भ

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यदि हम कर्म के कर्ता नहीं हैं , तो कर्ता कौन है ? श्रीकृष्ण जवाब देते हैं कि , कोई भी कर्म किए बिना एक पल भी नहीं रह सकता है क्योंकि सभी को कर्म करने के लिए प्रकृति से पैदा हुए गुणों द्वारा मजबूर किया जाता है ( 3.5) । तीन परमाणु कण , अर्थात् ‘इलेक्ट्रॉन’ , ‘ प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ पूरे भौतिक संसार का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार , तीन गुण अर्थात सत्व , तमो और रजो हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस अर्थ में वे ही वास्तविक कर्ता हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं , ‘‘ जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है , वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है’’ ( 3.6) । हम पारिवारिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कार और बुरे व्यवहार के लिए दंड की एक प्रणाली द्वारा पाले और शासित होते हैं। इसका परिणाम एक विभाजित व्यक्तित्व में होता है जिसमें हमारे आंतरिक और बाहरी स्वयं के बीच कोई समन्वय नहीं होता है। उदाहरण के लिए , जब कोई हमें चोट पहुँचाता है , तो हम अच्छे व्यवहार के लिए शब्दों औ

62. ‘मैं’ से संन्यास

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  श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं , जैसा कि मैंने पहले कहा , इस संसार में , मोक्ष के दो मार्ग हैं - ज्ञानी के लिए ज्ञान के माध्यम से और योगियों के लिए कर्म के मार्ग से ( 3.3) । यह श्लोक इंगित करता है कि जागरूकता का मार्ग बुद्धि का उपयोग करने वालों के लिए है और कर्म का मार्ग मन का उपयोग करने वालों के लिए है। श्रीकृष्ण आगे स्पष्ट करते हैं , केवल कर्म को आरम्भ किये बिना , कोई निष्कर्म को प्राप्त नहीं कर सकता है और कोई केवल त्याग से सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता है ( 3.4) । लगभग सभी संस्कृतियों में त्याग का महिमामंडन केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि त्याग करने वाले कुछ ऐसा करने में सक्षम होते हैं जो एक सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। यही कारण है कि अर्जुन का राज्य की विलासिता और युद्ध के दर्द को त्यागने का दृष्टिकोण हममें से कई लोगों को आकर्षित करता है। श्रीकृष्ण भी त्याग के पक्षधर हैं लेकिन वे हमें अपने सभी कार्यों में ‘मैं’ का त्याग करने के लिए कहते हैं। श्रीकृष्ण के लिए युद्ध कोई मुद्दा ही नहीं है , लेकिन अर्जुन का ‘मैं’ है। श्रीकृष्ण के लिए , निर्-मम और निर-अहंकार शाश्वत अवस्

61. अनिश्चित मन के लिए निश्चितता

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गीता के तीसरे अध्याय को कर्मयोग के रूप में जाना जाता है , जो कि श्लोक 2.71 का विस्तार है , जहां श्रीकृष्ण ने कहा कि निर्-मम और निर-अहंकार शाश्वत अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग है। अर्जुन एक संदेह प्रस्तुत करते हैं ( 3.1) यदि आप बुद्धि को श्रेष्ठ मानते हैं , तो आप मुझे ( 3.2) निश्चय के साथ बताने के बजाय युद्ध के भयानक कार्य में क्यों लगाते हैं। मेरे कल्याण के लिए सबसे अच्छा क्या है यह मुझे भ्रमित किए बिना बताएं। व्यक्त या अव्यक्त वर्गीकरण तर्कहीन और आवेगपूर्ण निर्णयों के अलावा और कुछ नहीं है जो सत्य पर आधारित नहीं हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें छोडऩे की सलाह दी ( 2.50) । अर्जुन ने एक ही कारण के आधार पर युद्ध से बचने का निर्णय लिया कि वह युद्ध में अपने रिश्तेदारों को मारने में कोई अच्छाई नहीं देखता ( 1.31) । इसके बाद , वह अपने निर्णय का बचाव करने के लिए कई औचित्य प्रस्तुत करता है और वर्तमान प्रश्न भी बेहतर समझ की तलाश के बजाय उसी औचित्य के एक भाग के रूप में प्रकट होता है। हमारी स्थिति अर्जुन से अलग नहीं है क्योंकि हमारे होश में आने से बहुत पहले ही हमारी पहचान धर्म