63. मिथ्या और दम्भ


यदि हम कर्म के कर्ता नहीं हैं, तो कर्ता कौन है? श्रीकृष्ण जवाब देते हैं कि, कोई भी कर्म किए बिना एक पल भी नहीं रह सकता है क्योंकि सभी को कर्म करने के लिए प्रकृति से पैदा हुए गुणों द्वारा मजबूर किया जाता है (3.5)

तीन परमाणु कण, अर्थात् ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ पूरे भौतिक संसार का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, तीन गुण अर्थात सत्व, तमो और रजो हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस अर्थ में वे ही वास्तविक कर्ता हैं।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है’’ (3.6)

हम पारिवारिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कार और बुरे व्यवहार के लिए दंड की एक प्रणाली द्वारा पाले और शासित होते हैं। इसका परिणाम एक विभाजित व्यक्तित्व में होता है जिसमें हमारे आंतरिक और बाहरी स्वयं के बीच कोई समन्वय नहीं होता है।

उदाहरण के लिए, जब कोई हमें चोट पहुँचाता है, तो हम अच्छे व्यवहार के लिए शब्दों और कार्यों के मामले में खुद को संयमित कर सकते हैं, लेकिन मन घृणा, पछतावा और अन्याय की भावना से भर जाता है।

श्रीकृष्ण कभी भी दमन या स्तब्धता के पक्ष में नहीं हैं, जिसे वे मिथ्या कहते हैं; बल्कि इसके बजाय, समत्व प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं, जहां चोट और प्रशंसा को समान माना जाता है और इसलिए द्वैत खत्म हो जाता है।

वास्तव में, कोई भी इस नर्क में नहीं रहना चाहता, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इससे बाहर कैसे निकला जाए। इसलिए श्रीकृष्ण अनासक्त होकर  कर्मयोग में अपने कर्म अंगों को संलग्न करने के लिए तुरंत एक समाधान देते हैं (3.7)

अनासक्ति मूल है जो न आसक्ति है और न विरक्ति है। यह कर्ता से लगाव के बिना कर्म करना है इस अहसास के साथ कि गुण ही वास्तविक कर्ता हैं; कर्मफल में आसक्त हुए बिना कर्म करना। यह इन्द्रिय विषयों से इन्द्रियों (नियंत्रक भाग) को अलग रखना है। अनासक्ति के साथ साथ सच्चा प्यार जो निस्वार्थ होता है, प्रकट होता है।

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