61. अनिश्चित मन के लिए निश्चितता


गीता के तीसरे अध्याय को कर्मयोग के रूप में जाना जाता है, जो कि श्लोक 2.71 का विस्तार है, जहां श्रीकृष्ण ने कहा कि निर्-मम और निर-अहंकार शाश्वत अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग है।

अर्जुन एक संदेह प्रस्तुत करते हैं (3.1) यदि आप बुद्धि को श्रेष्ठ मानते हैं, तो आप मुझे (3.2) निश्चय के साथ बताने के बजाय युद्ध के भयानक कार्य में क्यों लगाते हैं। मेरे कल्याण के लिए सबसे अच्छा क्या है यह मुझे भ्रमित किए बिना बताएं।

व्यक्त या अव्यक्त वर्गीकरण तर्कहीन और आवेगपूर्ण निर्णयों के अलावा और कुछ नहीं है जो सत्य पर आधारित नहीं हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें छोडऩे की सलाह दी (2.50)। अर्जुन ने एक ही कारण के आधार पर युद्ध से बचने का निर्णय लिया कि वह युद्ध में अपने रिश्तेदारों को मारने में कोई अच्छाई नहीं देखता (1.31)। इसके बाद, वह अपने निर्णय का बचाव करने के लिए कई औचित्य प्रस्तुत करता है और वर्तमान प्रश्न भी बेहतर समझ की तलाश के बजाय उसी औचित्य के एक भाग के रूप में प्रकट होता है।

हमारी स्थिति अर्जुन से अलग नहीं है क्योंकि हमारे होश में आने से बहुत पहले ही हमारी पहचान धर्म, जाति, पारिवारिक स्थिति, राष्ट्रीयता, लिंग आदि के आधार पर बनाई गयी और जीवन भर हम उस पहचान को सही ठहराने के लिए संघर्ष करते रहते हैं।

दूसरे, अर्जुन श्रीकृष्ण से निश्चय की तलाश में है। भले ही अनित्यता इस दुनिया की रीत है, हम सभी निश्चितता की तलाश करते हैं क्योंकि यह हमें आराम देता है। तर्कसंगत निर्णय के लिए अधिक सबूत इकठ्ठा करने की प्रतीक्षा और धैर्य की आवश्यकता होती है। इस तलाश में हम जल्द ही वर्गीकरण की ओर बढ़ते हैं।

लेकिन शाश्वत निश्चितता अपने स्वयं के जीवन के अनुभवों से आती है और इसे कठिन तरीके से अर्जित करना होता है। हम सभी को इस राह पर खुद चलना होगा क्योंकि यह अनुभव किताबों से या दूसरों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह गाड़ी या साइकिल चलाने जैसा है जो हर एक का अपना अनुभव होता है।

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