38. क्रिया और प्रतिक्रिया

 


श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कर्म करने का अधिकार है लेकिन कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम अकर्म की ओर बढ़ें, जो निष्क्रियता या परिस्थितियों की प्रतिक्रिया मात्र हैं।

यद्यपि श्रीकृष्ण अकर्म शब्द का प्रयोग करते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ निष्क्रियता है, संदर्भ से पता चलता है कि यह प्रतिक्रिया को दर्शाता है। श्लोक 2.47 जागरूकता और करुणा की बात करता है; जागरूकता वह है जिसमें कर्म और कर्मफल अलग- अलग हैं और दूसरों और खुद के प्रति करुणा का भाव हो।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म किए बिना, हमारा जीवित रहना असंभव है (3.8) क्योंकि भौतिक शरीर के रखरखाव के लिए खाने आदि जैसे कर्मों की आवश्यकता होती है। सत्व, तमो और रजो गुण हमें लगातार कर्म (3.5) की ओर ले जाते हैं। इसलिए, अकर्म के लिए शायद ही कोई जगह हो।

यदि हम समाचारों से गुजरते समय अपनी प्रवृत्तियों पर गौर करते हैं तो महसूस करेंगे कि जब हम अपने साझा मिथकों और विश्वासों जैसे धर्म, जाति, राष्ट्रीयता और विचारधारा आदि से सम्बंधित $खबरों को देखते या सुनते या पढ़ते हैं  तो हमारे भीतर उन गतिविधियों (कर्मों) को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती हैं, वह चाहे हमारी मान्यताओं के समर्थन में हो या विरोध में। परिवार और कार्यस्थल में हमारी बातचीत के साथ भी ऐसा ही है, जहाँ यह अधिकतर प्रतिक्रिया है, जो शब्दों और कार्यों के सन्दर्भ में, एक आंकने / विभाजन करने वाले मस्तिष्क से निकलती है। परिस्थितियों और लोगों के प्रति इस तरह की प्रतिक्रिया, हमारे जीवन से खुशी को छीन लेती है क्योंकि हम जागरूकता और करुणा से प्रेरित निष्काम कर्म के अवसर से चूक जाते हैं। एक बुद्धि जो जागरूक है वह दूसरों के दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से समझने में सक्षम होगी और बाद में सहानुभूतिपूर्ण तरीके से कार्य करेगी।

श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि हमें दूसरों के कर्मों के जवाब में अपने भीतर उत्पन्न अकर्म के बारे में जागरूक होना चाहिए। साथ ही, श्रीकृष्ण हमें ऐसे कर्मों को करने की सलाह देते हैं जो दूसरों में प्रतिक्रिया उत्पन्न करे। इसका अभ्यास करने से हम परिपक्वता, सत्यनिष्ठा और आनंद के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएंगे।


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