139. ‘ब्रह्म’ की अवस्था


 

श्रीकृष्ण ने उल्लेख किया कि जब कोई उनकी शरण लेकर मोक्ष के लिए प्रयास करता है (7.29) तो ब्रह्म को महसूस करता है और अर्जुन पूछता है कि ब्रह्म क्या है (8.1)। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘ब्रह्म’ वह है जो अक्षरम (अविनाशी या अक्षय या स्थायी) और परम (सर्वोच्च) (8.3) है। इसका तात्पर्य यह है कि इससे परे कुछ भी नहीं है और यह किसी बाहरी कारकों पर निर्भर नहीं है, जबकि हम केवल उन चीजों के बारे में जानते हैं जो परिवर्तनशील, अनित्य और नाशवान हैं।

हमारा अपना भौतिक शरीर लगातार बदलता रहता है। ऐसा अनुमान है कि हमारे शरीर का 95 प्रतिशत हिस्सा हमारी जानकारी के बिना लगभग 7 वर्षों में बदल जाता है जबकि हमारा डीएनए स्थिर रहता है। ऐसा अनुमान है कि, सौरमंडल 4 अरब वर्षों में और ब्रह्माण्ड लगभग 150 खरब वर्षों में नष्ट हो जाएगा। इसी तरह हमारे विचार बदलते रहते हैं। चीजों, लोगों और स्थितियों के बारे में राय समय के साथ बदलती रहती है। लोग समान तथ्यों के आधार पर पूरी तरह से विपरीत राय बनाते हैं क्योंकि हम चीजों को अलग-अलग तरह से देखते हैं जैसे पांच अंधे एक हाथी को अलग-अलग तरह से महसूस करते हैं। यहां तक कि हमारे लक्ष्य भी बदल जाते हैं, खासकर जब हम लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं।

ब्रह्म’ की स्थिति को जानने के मार्ग में हमारी इन्द्रियाँ सबसे बड़ी बाधा हैं। वे ध्वनि, प्रकाश, गंध और स्पर्श के रूप में बाहरी दुनिया में होने वाले परिवर्तनों को महसूस करने के लिए विकसित हुई हैं। निस्संदेह, यह क्षमता जीवित रहने के लिए आवश्यक है, लेकिन साथ ही यह ‘अक्षरम’ को साकार करने में सहायक नहीं होतीं। ऐसा कहा जाता है कि ‘जो हमें यहां (जीवित) लाया है वह हमें वहां (ब्रह्म तक) नहीं ले जाएगा’। इसलिए श्रीकृष्ण कई अवसरों पर इंद्रियों के प्रति सावधान रहने के लिए कहतेे हैं।

यह अनित्यता को समझकर अनित्य को दूर करने के बारे में है। अंत में जो बचता है वह ‘अक्षरम’ है। यह एक झूलते हुए पेंडुलम में एक स्थिर धुरी या फिर एक घूमते हुए पहिये की स्थिर धुरी को महसूस करने जैसा है। यह अनित्य (सृजन) से आसक्त न होने और हमेशा शाश्वत (रचनात्मकता) पर दृष्टि रखने के बारे में है जो विविधता में एकता को महसूस करना है।

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