37. वही अर्जुन वही बाण

 


वही अर्जुन वही बाण, यह एक मुहावरा है। इसका प्रयोग अक्सर ऐसी स्थिति का वर्णन करने के लिए किया जाता है जब एक सफल/सक्षम व्यक्ति काम पूरा करने में विफल रहता है।

एक योद्धा के रूप में अर्जुन कभी युद्ध नहीं हारे। अपने जीवन के उत्तरार्ध में, वह एक छोटी सी लड़ाई हार गए जिसमें उन्हें परिवार के कुछ सदस्यों को डाकुओं के समूह से बचाना था। वह इस स्थिति को अपने भाई को समझाते हैं और कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं पता कि क्या हुआ। मैं वही अर्जुन हूं और ये वही बाण थे जिन्होंने कुरुक्षेत्र का युद्ध जीता था, लेकिन इस बार मेरे बाणों को तो अपना लक्ष्य मिला और ही उनमें शक्ति थी।’’ उन्होंने समझाया कि उन्हें भागना पड़ा और परिवार की रक्षा नहीं कर सके।

जीवन के अनुभव हमें बताते हैं कि ऐसा हममें से किसी के साथ भी हो सकता है। कई बार, प्रतिभाशाली खिलाड़ी कुछ समय के लिए अपना फॉर्म खो देते हैं। एक अभिनेता, गायक असफल हो जाता है। इसका दोष भाग्य, बुरे समय आदि को दिया जाता है और निश्चित रूप से कोई नहीं जानता कि क्यों। अनुमानों और शंकाओं को छोडक़र इसके लिए मुश्किल ही कोई वैज्ञानिक व्याख्या है।

इस संदर्भ में, कर्म और कर्मफल के बीच संबंध के बारे में बताते हुए, श्रीकृष्ण कहते हैं (18.14) कि दैवम कर्म की पूर्ति में योगदान करने वाले कारकों में से एक है। दैवम एक प्रकार का विशेष गुण है और एक प्रकट विश्व दृष्टिकोण से अज्ञात है। यही कारण है कि श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, कर्मफल पर नहीं।

हस्तरेखा विज्ञान, ज्योतिष और सूर्य राशियों जैसी विद्याओं का अभ्यास किया जाता है, लेकिन उनमें से कोई भी दैवम नहीं है। इसी तरह, कोई वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है जिसके आधार पर दैवम की भविष्यवाणी की जा सके।

श्रीकृष्ण कहते हैं (11.33) हम निमित्त मात्र हैं, सर्वशक्तिमान की भव्य रचना का एक छोटा सा हिस्सा। असफलता हमें दुख नहीं पहुंचाएगी अगर हम सफलता मिलने पर अहंकार पैदा होने दें तो, क्योंकि दोनों ही दैवम से प्रभावित हैं।


Comments

Popular posts from this blog

139. ‘ब्रह्म’ की अवस्था

92. स्वास के माध्यम से आनंद

105. चिरस्थायी आनंद