84. मुमुक्षुओं के तरीके
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता’’ (4.14)। यह श्रीकृष्ण के शब्दों को पुष्ट करता है कि कर्मों पर हमारा अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर नहीं (2.47)।
परमात्मा के रूप में, श्रीकृष्ण भगवान
भी उसी का अनुसरण करते हैं और हमें बताते हैं कि वह कर्ता नहीं है, भले ही उन्होंने
मनुष्यों के बीच गुणों और कर्मों के आधार पर विभिन्न विभाजनों का निर्माण किया, जो कि कर्तापन की
अनुपस्थिति का संकेत देता है (4.13)।
उन्होंने आगे कहा, ‘‘पूर्वकाल में मुमुक्षुओं (मुक्त आत्मा) ने भी
इस प्रकार जान कर ही कर्म किये हैं। इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने
वाले कर्मों को ही कर’’ (4.15)।
अपने जीवन के सामान्य क्रम में, हम वांछित कर्मफल
प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं। हालाँकि, जब हमें कर्मफल
छोडऩे के लिए कहा जाता है, तो हम कर्मों को भी छोड़ देते हैं। श्रीकृष्ण यहां त्याग के
लिए एक पूरी तरह से अलग प्रतिमान प्रकट करते हैं जब वे परामर्श देते हैं कि हम
कर्म करते रहें,
लेकिन कर्मफल और
कर्तापन दोनों के प्रति लगाव को छोडक़र। अर्जुन को युद्ध लडऩे की उनकी सलाह, जो कि एक और कर्म
है, को इसी सन्दर्भ
में देखा जाना चाहिए।
हमारे कार्यों में सचेतन रूप से कर्तापन छोडऩा कठिन है। लेकिन हम सभी अक्सर कर्तापन के बिना कार्य
करते हैं, जब हम गहराई से
नृत्य, पेंटिंग, पढऩा, शिक्षण, बागवानी, खाना पकाने, खेल और यहां तक
कि सर्जरी जैसी गतिविधियों में शामिल होते हैं। मन की इस अवस्था को आधुनिक
मनोविज्ञान में प्रवाह (स्नद्यश2) की अवस्था कहा गया है। सार यह है कि ऐसे खूबसूरत पलों को
पहचानें और जीवन के सभी क्षेत्रों में उनका विस्तार करते रहें, इस एहसास के साथ
कि ब्रह्माण्ड हमारे प्रयासों से प्रतिध्वनित होगा।
जीवन अपने आप में एक आनंदमय चमत्कार है। इसे पूरा करने के
लिए कर्तापन या कर्मफल की जरूरत नहीं है। हम कर्मबंधन से मुक्ति तब प्राप्त करते
हैं जब हम कर्तापन और कर्मफल दोनों को छोड़ देते हैं और परमात्मा के साथ एक हो
जाते हैं।
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