81. ‘मैं’ समावेश है

 


गीता में अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ और उपयोग के सन्दर्भ अलग हैं। अर्जुन का ‘मैं’ उनके भौतिक शरीर, संपत्ति, भावनाओं और विश्वासों को दर्शाता है जो सिर्फ उनके परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों तक सीमित हैं। हमारी स्थिति अर्जुन से भिन्न नहीं है। हम कुछ चीजों को विशेष रूप से अपना मानते हैं और कुछ को नहीं मानते हैं। जब श्रीकृष्ण ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं तो यह समावेशी होता है। हम इन्द्रियों की सीमा की वजह से इन्द्रिय विषयों में अंतर्विरोध और ध्रुवीयता महसूस करते हैं और श्रीकृष्ण की ‘मै’ं में ये सारे अंतर्विरोध शामिल होते हैं। श्रीकृष्ण उसी क्रम में कहीं और कहते हैं, ‘‘मैं जन्म के साथ-साथ मृत्यु भी हूँ।’’

जबकि श्रीकृष्ण महासागर हैं, हम उसी सागर के बूंद हैं। लेकिन अहंकार के कारण हम अपने आप को अलग मानते हैं। जब एक बूंद अपने अस्तित्व को त्याग कर सागर से मिल जाती है, तो वह सागर बन जाती है। श्रीकृष्ण इसे इंगित करते हैं जब वे कहते हैं कि, ‘‘मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक हैं, इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है’’ (4.9)। निश्चय ही, बोध का अर्थ है अहंकार का त्याग और अंतर्विरोधों को स्वीकार करने की क्षमता।

श्रीकृष्ण वीतराग शब्द का उपयोग करते हैं (4.10) जो न तो राग है और न ही विराग, बल्कि एक उच्चतर अवस्था है जहां राग और विराग को समान माना जाता है। यही बात भय और क्रोध पर भी लागू होती है।

श्रीकृष्ण एक और शब्द ज्ञान-तपस का प्रयोग करते हैं। तपस और कुछ नहीं बल्कि अनुशासित तरीके से जीना है और हममें से कई लोग इसका अभ्यास करते हैं। अज्ञानता के साथ किया गया तप, ऐन्द्रिक सुखों और भौतिक संपदाओं की तलाश के लिए एक गहन खोज बन जाता है। श्रीकृष्ण हमें ज्ञान-तपस का अनुसरण करने की सलाह देते हैं, जो एक जागरूक एवं अनुशासित जीवन है।

उनका कहना है कि, ‘‘पहले भी जिसके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझमें अनन्य प्रेमपूर्वक स्थिर रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं’’ (4.10)। 

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