17. चार प्रकार के ‘भक्त’




            श्रीकृष्ण के अनुसार चार प्रकार के भक्त होते हैं। 

            पहला भक्त जीवन में जिन कठिनाइयों और दुखों का सामना कर रहा है, उनसे बाहर आना चाहता है। दूसरा भौतिक संपत्ति और सांसारिक सुखों की इच्छा रखता है। अधिकांश भक्त; संस्कृति, लिंग, विश्वास, मान्यता आदि के बावजूद इन दो श्रेणियों में आते हैं।

                श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दो प्रकार के भक्त विभिन्न देवताओं की प्रार्थना और अनुष्ठान करते हैं। उसे इस तरह समझा जा सकता है कि वह जिस बीमारी से पीडि़त है उसके विशेषज्ञ चिकित्सक के पास जाता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि श्रद्धा के अनुरूप इन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। संक्षेप में, यह समर्पण का एक रूप है।

            निम्नलिखित उदाहरण श्रद्धा को समझने में मदद करेगा। दो किसान जिनके खेत पास-पास हैं, वे अपने खेतों की सिंचाई के लिए एक कुआं खोदने का फैसला करते हैं। पहला किसान एक या दो दिन खुदाई करता और पानी न मिलने पर स्थान बदल देता और नए सिरे से खुदाई शुरू करता। दूसरा किसान लगातार उसी जगह खुदाई करता रहा। महीने के अंत तक पहले किसान के खेत में कई गड्ढे रह जाते हैं और दूसरे को कुएं से पानी मिल जाता है। हमारी इंद्रियों को कुछ ठोस नहीं मिलने पर भी (जैसे इस मामले में पानी), यह आंतरिक श्रद्धा है जो हमें गतिमान रखता है, जैसा दूसरे किसान के मामले में है। श्रद्धा एक निडर सकारात्मक शक्ति है और संदेह से मुक्त है।

            श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि वह इस श्रद्धा के पीछे हैं, जिसके परिणामस्वरूप सफलता मिलती है। श्रद्धा हमारे रिश्तों, पारिवारिक संबंधों और पेशे में चमत्कार हासिल करने की शक्ति रखती है।

            तीसरे प्रकार का भक्त इच्छाओं की सीमा को पार करने वाला होता है। वह एक जिज्ञासु व्यक्ति है और स्वयं के ज्ञान की तलाश में है। चौथा भक्त, एक ज्ञानी है, जिसने इच्छाओं की सीमा पार कर ली है। वह हर चीज में और प्रत्येक जगह भगवान को देखता है और सर्वशक्तिमान के साथ एकता प्राप्त कर चुका होता है।


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