15. समत्व

 




 

समत्व गीता की नींव जैसा है और इसलिए इसका वर्णन गीता में विभिन्न स्थानों पर किया गया है। भगवान   श्रीकृष्ण ने विभिन्न स्थानों पर समत्व-भाव, समत्व-दृष्टि और समत्व-बुद्धि की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। समत्व को समझना आसान है लेकिन अंत:करण में ग्रहण करना मुश्किल है। हमारे अंदर समत्व की मात्रा, हमारी आध्यात्मिक यात्रा में हमारी प्रगति का सूचक है।

भौतिक क्षेत्र में, अधिकांश समाजों ने समत्व को सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता के रूप में स्वीकार किया है। श्रीकृष्ण समत्व के कई उदाहरण देते हुए कहते हैं कि विवेकशील व्यक्ति शिकार और शिकारियों; सुख और दुख; लाभ और हानि आदि को समान दृष्टि से देखते हैं।

मनुष्यों के साथ कठिनाई यह है कि हम संस्कृति, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, नस्ल आदि जैसे कृत्रिम विभाजनों के आधार पर स्वयं को पहचानते हैं। इन विभाजनों को दूर करके दो अलग-अलग लोगों के साथ समान व्यवहार की क्षमता ही, समत्व की ओर पहला कदम है। यह प्रदर्शित व्यवहार से कहीं अधिक गहरा है।

समत्व में प्रगति का अगला स्तर अपने  कऱीबी दो लोगों को समत्व के साथ देखने की क्षमता है। उदाहरण के तौर पर, हमारे बच्चों के दोस्तों की सफलता के लिए खुश होना, खासकर जब हमारे अपने बच्चों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया; माँ और सास;  बेटी और बहू के साथ समान रूप से व्यवहार करना।

समत्व का उच्चतम स्तर दूसरों को अपने समान मानने की क्षमता है। यह समान भाव बनाए रखने की क्षमता है जब दूसरों को वह मिलता है जिसके बारे में हम विश्वास करते हैं कि वह हमारा है, जैसे पदोन्नति, प्रसिद्धि, श्रेय, संपत्ति, इत्यादि। समत्व का यह स्तर तब आता है जब हम स्वयं में दूसरों की कमजोरियों को और दूसरों में अपनी ताकत देखने में सक्षम हो जाते हैं।

  श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम खुद को दूसरों में और दूसरों को स्वयं में देखें; और अंतत: सभी में और हर जगह   श्रीकृष्ण को देखें। यह और कुछ नहीं बल्कि अद्वैत है, जो कहता है कि यह दो नहीं है।

समत्व के इस उच्चतम रूप को प्राप्त करने में बाधा हमारा मन है, जिसे विभाजित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसे हावी होने देने के बजाय हमें इस पर नियंत्रण रखने में सक्षम होना चाहिए।

 


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