13. साक्षी होना

यदि एक शब्द संपूर्ण गीता का वर्णन कर सकता है, तो वह होगा दृष्टा यानी साक्षी, जो कई संदर्भों में इस्तेमाल होता है। इसकी समझ महत्वपूर्ण है क्योंकि हममें से अधिकांश लोग सोचते हैं कि सब कुछ हम ही करते हैं और स्थितियों को नियंत्रित करते हैं। 
अर्जुन, जो कुरुक्षेत्र युद्ध के समय लगभग साठ वर्ष का था, ने एक अच्छा जीवन बिताया था और सभी तरह की विलासिता का आनंद लिया था। एक योद्धा के रूप में उसने कई युद्धों को जीता था। युद्ध के समय, उसने महसूस किया कि वह कर्ता है और उसे लगा कि वह अपने रिश्तेदारों और परिजनों की मृत्यु के लिए जिम्मेदार होगा, इस कारण युद्ध के मैदान में उसको विषाद हुआ। सम्पूर्ण गीता में भगवान श्रीकृष्ण उसे यह बताने का प्रयास करते हैं कि वह ‘कर्ता’ नहीं है। स्वाभाविक प्रश्न है कि: यदि मैं कर्ता नहीं हूँ, तो मैं क्या हूँ।
भगवान गीता में समझाते हैं कि अर्जुन दृष्टा है, साक्षी है।
60 वर्षों के जीवन के अच्छे और बुरे अनुभवों के कारण, अर्जुन को इस विचार को समझना मुश्किल लगता है कि वह केवल एक साक्षी है, न कि कर्ता। केवल भगवान की श्रमसाध्य व्याख्या ही उसे इस तथ्य के बारे में आश्वस्त करती है। हालांकि अधिकांश संस्कृतियां हमें बताती हैं कि हम सिर्फ एक दृष्टा हैं, परन्तु जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत में हैं, वे इस विचार से भ्रमित हो जाते हैं।
दृष्टा बुद्धि की एक अवस्था है, लेकिन भौतिक दुनिया में इसका आभास नहीं होता है। यह वह क्षमता है जो हमें अपने आसपास दिन-प्रतिदिन होनेवाली घटनाओं से प्रभावित हुए बिना आतंरिक रूप से स्थिर रहने में मदद करती है। हालांकि भौतिक दुनिया में हमें सुख और दुख के द्वंद्व से गुजरना पड़ता है, परन्तु बुद्धि की यह अवस्था हमें किसी कर्मफल की इच्छा के बिना कर्म करने में मदद करेगी। यह हमारी भावनाओं को साक्षी भाव से देखने और उन्हें अधीनस्थ करने की क्षमता है।

Comments

Popular posts from this blog

53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा

17. चार प्रकार के ‘भक्त’

58. इच्छाएं और जीवन की चार अवस्थाएँ