11. सुख का अनुसरण करता है दुख

 


द्वंद्वातीत अर्थात द्वैत को पार करना, गीता में एक और अचूक निर्देश है। श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार विभिन्न संदर्भों में इस अवस्था को प्राप्त करने की सलाह देते हैं।

सामान्य प्रश्न जो मानवता को चकित करता है वह यह है कि जब हम सुख प्राप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते हैं तब भी असुखद स्थिति या दुख हमारे पास कैसे आते हैं। अपने भीतर गहराई से देखने के बजाय, हम यह कहकर खुद को समेट लेते हैं कि शायद हमारे प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। हालाँकि, आशा के साथ-साथ अहंकार हमें सुख की खोज की प्रक्रिया को फिर से शुरू करने के लिए प्रेरित करता है और यह जीवन के अंत तक चलता रहता है। द्वंद्वातीत की समझ इस समस्या को सुलझाती है।

व्यक्त दुनिया में, सब कुछ अपने बुनियादी रूप से विपरीत रिश्ते यानी द्वंद्व के तौर पर मौजूद है। जन्म का विपरीत ध्रुव मृत्यु है; सुख का विपरीत ध्रुवीय दुख है; हार का जीत; लाभ का हानि; जोडऩा का घटाना; प्रशंसा का आलोचना; सशर्त प्रेम का घृणा; और यह सूची खत्म ही नहीं होती।

नियम यह है कि जब हम इनमें से किसी एक का पीछा करते हैं, तो इसका ध्रुवीय विपरीत स्वत: ही अनुसरण करता है। यदि हम छड़ी को एक सिरे से उठाते हैं, तो दूसरा सिरा उठना तय है। एक अन्य रूपक झूलते हुए पेंडुलम का है। जब यह एक तरफ जाता है, तो यह अपने ध्रुवीय विपरीत दिशा में आने के लिए बाध्य होता है।

ध्रुवीयता के सिद्धांत के अनुसार, कोविड महामारी का दर्द समय के साथ आनंद में बदल जाएगा और इतिहास बताता है कि इसी तरह की कठिन परिस्थितियों ने हमें बेहतर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से आनंदित किया है। चरम ध्रुवताएं, जैसे कि कोरोना महामारी, में अन्तरात्मा की तरफ यात्रा को तेज करने की क्षमता है।

श्रीकृष्ण हमें इन ध्रुवों को पार करने के लिए कहते हैं। वर्तमान में होना अतीत और भविष्य से परे है। इसी तरह, बिना शर्त प्यार, सशर्त प्यार और नफरत को पार करना है।

हमें केवल इन ध्रुवों के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है और जब हम उनके बीच झूल रहे हों तो उनका निरीक्षण करें। जब तक हम जीवित हैं, ध्रुवीयताओं के संपर्क में आना स्वाभाविक है और यह जागरूकता हमें उन्हें पार करने में मदद करेगी।


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