35. जीने का तरीका है ‘कर्मयोग’


 

श्रीकृष्ण कहते हैं (2.47) कि हमें अपना कर्म करने का अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। अगर हमारे किसी प्रियजन को सर्जरी की आवश्यकता होती है, तो हम सर्जन की तलाश करते हैं जो सक्षम भी है और ईमानदार भी। उसकी क्षमता सर्जरी की सफलता सुनिश्चित करेगी और उसकी ईमानदारी यह सुनिश्चित करेगी कि वह कोई अनावश्यक सर्जरी नहीं करेगा। संक्षेप में, हम एक ऐसे सर्जन की तलाश कर रहे हैं जो कर्मयोगी हो। इस स्तिथि से दो रास्ते हमें श्लोक को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं।

हम उम्मीद करते हैं कि हमें सेवा प्रदान करनेवाले सभी लोग कर्मयोगी होंगे और वे हमें वह सर्वोत्तम परिणाम देंगे जिसकी हम आशा कर सकते हैं। यदि हम समत्व के सिद्धांत को अपने ऊपर लागू करते हैं, तो हमें भी अपने दैनिक जीवन में अन्य लोगों की ऐसी ही मदद करते हुए कर्मयोगी होना चाहिए। यह श्लोक कहता है कि हम जो कुछ भी करते हैं, अपने लौकिक और पारिवारिक मामलों में, हमें अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए।

गीता में किसी जगह श्रीकृष्ण हमें आश्वासन देते हैं कि  कर्मयोग के अभ्यास में छोटे कदम हमें समत्व के करीब लाते हैं, जो अपने आप में एक खुशी है। जब हम किसी ऐसे व्यक्ति को अपनी सर्वश्रेष्ठ मदद करने में सक्षम होते हैं, जिसको दोबारा मिलने की संभावना नहीं होती, तब हम दृढ़ता से कर्मयोगी बनने की राह पर होते हैं।

वास्तव में, जब हम कर्मफल की परवाह किए बिना कर्म में गहराई से शामिल होते हैं, तो हम कालातीत की स्थिति पाते हैं, जहां समय का कोई महत्व नहीं रह जाता है। उपरोक्त उदाहरण में, जब हम ऑपरेशन थियेटर के बाहर प्रतीक्षा करते हैं, तो समय धीरे-धीरे बीतता प्रतीत होता है। दूसरी ओर, एक कर्मयोगी सर्जन समय का होश खो देता है और एक प्रकार से उसके लिए समय रुक जाता है।

श्रीकृष्ण हमें दुख के वृक्ष को उखाडऩे के लिए कहते हैं, जिसकी जड़ें कर्मफल की इच्छा के अलावा और कुछ नहीं हैं।

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