95. पाप के समुद्र के लिए ज्ञान रूपी नाव


कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान अर्जुन का विषाद उसकी इस भावना के कारण है कि वह पाप कर रहा है। उसे लगता है कि अपने शिक्षकों, रिश्तेदारों और दोस्तों को मारना  पाप के अलावा और कुछ नहीं है (1.36) और हमें इस तरह के पापपूर्ण कार्य से दूर हो जाना चाहिए (1.38)। वह इस तथ्य से और भी अधिक परेशान है कि वह और उसके भाई राज्य के लालच में अपने ही भाइयों को मारने की तैयारी कर रहे हैं (1.45)। अर्जुन की इस भ्रांन्ति को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन से पाप के बारे में बात करते हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं, यदि आप पापियों में सबसे अधिक पापी हैं, तो भी आप ज्ञान के नाव से पाप के समुद्र को सुरक्षित रूप से पार कर लेंगे (4.36)। जिस प्रकार प्रज्वलित ज्वाला जलाऊ लकड़ी को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है (4.37)

श्रीकृष्ण के लिए पाप अंधकार के समान है, जो ज्ञान और जागरूकता के प्रकाश से दूर हो जाता है। अँधेरा बहुत समय से रहा होगा या घना अँधेरा हो सकता है, लेकिन प्रकाश उसे तुरंत दूर कर देता है।

हालाँकि, यह उन धार्मिक उपदेशों के विपरीत है जो कुछ कर्मों और विचारों को पाप के रूप में चिन्हित करते हैं। उस पाप को वह हमारे दु:ख की ध्रुवता का जिम्मेदार ठहराते हंै। सभी धर्म पाप से छुटकारा पाकर सुख प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रथाओं और अनुष्ठानों के उपदेश देते हैं। पाप सरल हैं या गहरे, उस हिसाब से अनुष्ठान की मात्रा और गुणवत्ता भिन्न होती है। यदि यह पाप लंबे समय तक किया जाता है, तो अधिक पश्चाताप और पछतावे की आवश्यकता होती है।

लेकिन श्रीकृष्ण के लिए पाप की लंबाई और गहराई मायने नहीं रखती। केवल ‘उस’ को जानने की जरूरत है जिसके द्वारा हम सभी प्राणियों के साथ-साथ भगवान को भी स्वयं में देख पायेंगे (4.35)

धर्म हमारे पाप करने के अपराध बोध पर फलते-फूलते हैं, जबकि आध्यात्मिकता, कृतज्ञता और जागरूकता के बारे में है कि पाप और पुण्य एकत्व के ही हिस्से हैं।

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