28. परमात्मा से एकाकार हेतु धर्मों का त्याग

श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) और परधर्म (3.35) के बारे में बताते हैं और अंत में सभी धर्मों (18.66) को त्यागकर परमात्मा के साथ एक होने की सलाह देते हैं।
अर्जुन का विषाद उसके भय से उत्पन्न हुआ कि यदि उसने युद्ध लड़ा और अपने भाइयों को मार डाला तो उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचेगी। श्रीकृष्ण उसे (2.34-2.36) कहते हैं कि युद्ध से पलायन करने पर भी वह अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि लडऩा उसका स्वधर्म है। सब लोगों को लगेगा कि अर्जुन युद्ध में शामिल होने से डरे और युद्ध से डरना क्षत्रिय के लिए मृत्यु से भी बदतर है।

श्रीकृष्ण आगे बताते हैं (3.35) कि, स्वधर्म, भले ही दोषपूर्ण या गुणों से रहित हो, परन्तु परधर्म से बेहतर है और स्वधर्म के मार्ग में मृत्यु बेहतर है, क्योंकि परधर्म भय देने वाला है।

परधर्म को हमारी बाहरी इन्द्रियों द्वारा आसान और बेहतर माना जाता है खासतौर पर तब जब हम सफल लोगों को देखते हैं, जबकि आन्तरिक स्वधर्म के लिए अनुशासन और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है और इसे धीरे-धीरे हमारे अंदर उजागर करना पड़ता है। आमतौर पर हमारे आत्म-मूल्य की भावना, अन्य बातों के अलावा हमारे प्रतिष्ठित परिवार जहां हम पैदा हुए हैं, स्कूल में ग्रेड, नौकरी या पेशे में अच्छी कमाई और हमारे रास्ते में आने वाली शक्ति / प्रसिद्धि से अनुकूल रूप से तुलना करने से आती है जिससे हम अपने आपको दूसरों से बेहतर समझते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण के लिए, हर कोई अद्वितीय है और अपने स्वधर्म के अनुसार अद्वितीय रूप से खिलेगा। उनका कहना है कि जबकि सभी में अव्यक्त एक ही है, प्रत्येक प्रकट इकाई अद्वितीय है।

अंत में, श्रीकृष्ण हमें सलाह देते हैं (18.66) कि हम सभी धर्मों को त्याग दें और उनकी शरण में चले जाएं क्योंकि वे हमें सभी पापों से मुक्त कर देंगे। यह भक्ति योग में समर्पण के समान है और आध्यात्मिकता की नींव में से एक है।

जिस प्रकार एक नदी समुद्र का हिस्सा बनने पर अपने स्वधर्म को खो देती है, उसी तरह हमें भी परमात्मा के साथ एक होने के लिए अहंकार और स्वधर्म को खोना पड़ेगा।

Comments

Popular posts from this blog

53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा

17. चार प्रकार के ‘भक्त’

58. इच्छाएं और जीवन की चार अवस्थाएँ