30. पानी, रेत और पत्थर पर लेखन


श्रीकृष्ण कहते हैं (2.39) कि सांख्य (2.11-2.38) के बारे में स्पष्ट करने के बाद वे अब योग (या कर्मयोग) की व्याख्या करेंगे, जिसके अभ्यास से व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा।

सांख्ययोग की व्याख्या करते हुए, श्रीकृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि वह अविनाशी चैतन्य है जिसकी मृत्यु नहीं होती है। इसी श्लोक से श्रीकृष्ण कर्मयोग के द्वारा इसकी व्याख्या करने लगते हैं। इसलिए कर्म बंधन और योग को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है।
योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन और गीता में इसका प्रयोग कई संदर्भों में किया जाता है। श्रीकृष्ण (2.48) समत्व को ही योग कहते हैं जहॉं सफलता या असफलता के प्रति आसक्ति को छोड़ दिया जाता है। श्लोक 2.38 में भी  श्रीकृष्ण का जोर सुख-दुख, जीत और हार, और लाभ और हानि के प्रति समत्व बनाए रखने पर है।

कर्म बंधन उन छापों या निशानों को संदर्भित करता है, जो सुखद और दर्दनाक दोनों तरह के होते हैं, जो हमारे द्वारा किए गए कर्मों और हमें भीतर और बाहर से प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं द्वारा छोड़े जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से इन्हें तंत्रिका प्रतिरूप (न्यूरल पैटर्न) कहा जाता है। ये छापें हमारे व्यवहार को अचेतन स्तर से संचालित करती हैं और इसलिए श्रीकृष्ण हमें योग के माध्यम से कर्म बंधन के छाप से मुक्त करने के लिए कहते हैं।

हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति उन छापों को पसन्द करती है जो हमें आनंद और लाभ देती हैं और उन छापों से घृणा करती हैं जो हमें दर्द और हानि देते हैं। ये भाव जितने गहरे होते हैं, पसन्द करने और घृणा करने की तीव्रता उतनी ही अधिक होती है।

उदहारण के तौर पर इन छापों को पत्थर, रेत और पानी पर लिखावट से तुलना कर सकते है। जब छाप पत्थर पर होती है, तो यह गहरी होती है और हमें लंबे समय तक प्रभावित करती है। रेत पर लिखने से थोड़ा कम समय तक। परन्तु पानी पर लिखा तुरंत मिट जाता है।
श्रीकृष्ण पानी पर छापों का जिक्र कर रहे हैं जब वे कहते हैं कि  कर्मयोग हमें कर्म बंधन से मुक्त करता है और यह हमें इतना सरल बनाता है कि कुछ भी हमें प्रभावित या परेशान नहीं कर सकता है।

Comments

Popular posts from this blog

53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा

17. चार प्रकार के ‘भक्त’

58. इच्छाएं और जीवन की चार अवस्थाएँ