26. गुलाब कभी कमल नहीं बन सकता

श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) के बारे में बताते हैं और अर्जुन को सलाह देते हैं कि क्षत्रिय होने के नाते उन्हें लडऩे में संकोच नहीं करना चाहिए (2.31) क्योंकि यह उनका स्वधर्म है।

श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत उस से करते हैं जो शाश्वत, अव्यक्त और सभी में व्याप्त है। इसे आसानी से समझने के लिए आत्मा कहा जाता है। फिर वह स्वधर्म के बारे में बात करते हैं, जो उस से एक कदम पहले है और बाद में वह कर्म पर आते है।

अंतरात्मा की अनुभूति की यात्रा को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण है हमारी वर्तमान स्थिति, दूसरा है स्वधर्म का बोध और अंत में, अंतरात्मा तक पहुंचना। वास्तव में, हमारी वर्तमान स्थिति हमारे स्वधर्म, अनुभवों, ज्ञान, स्मृतियों और हमारे अस्थिर मस्तिष्क द्वारा एकत्रित धारणाओं का एक संयोजन है। जब हम अपने आप को अपने मानसिक बोझ से मुक्त करते हैं तो स्वधर्म धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाता है।

 क्षत्रिय ‘क्षत’ और ‘त्रय’ का संयोजन है, क्षत का अर्थ है चोट और त्रय का अर्थ है सुरक्षा देना। क्षत्रिय वह है जो चोट से सुरक्षा देता है।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक माँ का है जो गर्भ में बच्चे की रक्षा करती है और बच्चों की तब तक रक्षा करती है जब तक कि वे अपने आप खड़े नहीं हो जाते। तो वह पहली क्षत्रिय हैं जिनसे हम अपने जीवन में मिलते हैं। वह अप्रशिक्षित हो सकती है और उसे बच्चे की देखभाल का अनुभव नहीं हो सकता है लेकिन यह स्वाभाविक रूप से उसे आता है। यह प्रकृति स्वधर्म की झलक है।

एक बार एक गुलाब का फूल एक सुन्दर कमल के फूल को देखकर विस्मित हो गया और कमल बनने की इच्छा पालने लगा। लेकिन कोई उपाय नहीं है कि वह कमल बन जाए। जैसे गुलाब अपनी क्षमता से अलग होना चाहता है, ऐसी ही प्रवृत्ति हमारे भीतर भी है। जिसकी वजह से हम अर्जुन जैसा विषाद पाते रहते हैं। गुलाब अपना रंग, आकृति और आकार बदल सकता है, लेकिन फिर भी गुलाब ही रहेगा जो उसका स्वधर्म है।

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