106. खुशियों का लगाम
एक बार, मध्य एशिया से घोड़े पर सवार होकर एक आक्रमणकारी ने दिल्ली
पर कब्जा कर लिया और विजय जुलूस निकालना चाहा। एक हाथी को सजाया गया और उस पर चढऩे
के बाद उसने हाथी की लगाम मांगी। जब बताया गया कि यह एक महावत द्वारा नियंत्रित है, तो वह नीचे कूद
गया और अपने घोड़े को यह कहते हुए बुलवाया कि वह कभी ऐसी सवारी नहीं करता जिसकी
लगाम उसके हाथ में नहीं होती।
इसी तरह, हमें आत्म निरीक्षण करने की आवश्यकता है कि क्या हमारी खुशी
और भावनाओं की बागडोर हमारे हाथ में है या किसी और के हाथ में है। हम सभी सोचते
हैं कि ये बागडोर हमारे हाथ में है, लेकिन हकीकत यह है कि बागडोर अक्सर किसी और के पास होती है।
यह एक दोस्त हो सकता है, परिवार या कार्यस्थल में कोई व्यक्ति जिसकी मनोदशा, शब्द, राय, प्रशंसा और
आलोचना हमें सुखी या दु:खी करती है; भोजन, पेय या भौतिक चीजें; अनुकूल या
प्रतिकूल स्थिति; यहां तक कि हमारा अतीत या भविष्य भी।
इस संबंध में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘जो साधक इस
मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न
होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी
है और वही सुखी है’’ (5.23)। दूसरों से खुशी प्राप्त करने की इच्छा ही वासना है और
क्रोध हमें तब होता है जब परिस्थितियां हमारी इच्छा के अनुसार नहीं होती हैं।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि ‘‘जो व्यक्ति अंतरात्मा में
सुखवाला है, आत्मा में रमण
करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, ऐसे योगी भगवान
के साथ एक हो जाते हैं और भौतिक अस्तित्व से मुक्त हो जाते हैं’’ (5.24)। पापों का नाश
करके, शंकाओं को दूर
करके, इन्द्रियों को वश
में करके, मानव कल्याण में
योगदान देने वाले ऋषि, ब्रह्म के आनंद को प्राप्त करते हैं (5.25)।
सेवा, दूसरों के प्रति करुणा के साथ स्वयं के बारे में जागरूकता
प्राप्त करने के बारे में है। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि कोई दूसरों की मदद तब
कर सकता है जब वह जान जाता है कि काम और क्रोध के आवेगों में महारत हासिल करके
अपनी मदद कैसे करनी है, लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा नहीं जो पहले से ही उनका
गुलाम है।
Comments
Post a Comment