105. चिरस्थायी आनंद



श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो दिव्य ज्ञान की पक्की समझ रखते हैं और भ्रम से बाधित नहीं होते हैं, वह न तो कुछ सुखद पाने में आनन्दित होते हैं और न ही अप्रिय का अनुभव करने पर शोक करते हैं, वे ब्रह्म में स्थित होते हैं (5.20)। हम परिस्थितियों और लोगों को सुखद और अप्रिय के रूप में विभाजित करते हैं और ज्ञानी इस विभाजन को छोड़ देता है।

श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन को मोह-माया से बाहर आने के लिए कहते हैं जहां हम यह पहचान नहीं कर पाते हैं कि क्या हमारा है और क्या नहीं। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से सुख प्राप्त कर सकते हैं। दूसरी ओर, श्रीकृष्ण अक्षय आनंद के लिए एक समाधान देते हैं, जब वे कहते हैं कि जो लोग बाहरी इन्द्रिय सुखों से जुड़े नहीं हैं, वे स्वयं में दिव्य आनंद का अनुभव करते हैं। योग के द्वारा ईश्वर से जुडक़र वे अक्षय आनंद का अनुभव करते हैं (5.21)

श्रीकृष्ण ने चेतावनी दी है कि सांसारिक विषयों के संपर्क से उत्पन्न होने वाले सुख, हालांकि सांसारिक लोगों के लिए सुखद प्रतीत होते हैं, वास्तव में दु:ख का स्रोत हैं।  ऐसे सुखों का आदि और अंत होता है, इसलिए बुद्धिमान उनसे प्रसन्न नहीं होते (5.22)

यह गीता के आरंभ में श्रीकृष्ण ने जो कहा है, उसका विस्तार है। बाहरी वस्तुओं के साथ इंद्रियों का मिलन सुख और दु:ख के द्वंद्व का कारण बनता है और हमें उन्हें सहन करना सीखना चाहिए, क्योंकि वे अनित्य या क्षणिक हैं (2.14)। इसका तात्पर्य यह है कि कालचक्र में सुख और दु:ख दोनों का अंत होना निश्चित है। यह हमारा अनुभव है कि जब सुख चला जाता है या जब हम उनसे ऊब जाते हैं तो हम दु:खी होते हैं। इसी तरह जब दु:ख दूर हो जाता है तो हमें सुख का अनुभव होता है। इन पर काबू पाने के लिए, हम बीते हुए आनंद के क्षणों को जुगाली करते हैं या एक दूसरे पर दोषारोपण करने में लग जाते हैं। लेकिन सार यह है कि जब हम सुख और दु:ख से गुजरते हैं तो उनके अनित्यता के बारे में जागरूक रहें।

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