103. पुण्य और पाप की जड़ें

 

  श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है’’ (5.14)

परमेश्वर एक कर्ता नहीं बल्कि एक सृष्टा यानी रचनाकार या रचनात्मकता हैं। रचनाएं दो प्रकार की होती हैं। एक कुम्हार की तरह है जो मिट्टी के बर्तन बनाता है और सृष्टि (बर्तन) स्वतंत्र अस्तित्व के लिए निर्माता से अलग हो जाती है। दूसरा एक नर्तक की तरह है जो नृत्य का सृजन करती है। लेकिन नर्तक की अनुपस्थिति में नृत्य (सृजन) नहीं होगा। भगवान एक नर्तक के समान हैं, जहां पूरा ब्रह्माण्ड उन पर निर्भर है, लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए नृत्य करने वाले शिव को नटराज और संगीतकार श्रीकृष्ण को मुरारी के रूप में चित्रित किया गया है।

भगवान को एक रासायनिक प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक के रूप में भी देखा जा सकता है जहां एक उत्प्रेरक की उपस्थिति से रासायनिक प्रतिक्रिया जारी रहती है जब कि उत्प्रेरक स्वयं किसी भी परिवर्तन से नहीं गुजरता है।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि सर्वव्यापी किसी के पुण्य या पाप को ग्रहण नहीं करता है। मनुष्य बहकावे में आता है क्योंकि उसका ज्ञान मोह से आच्छादित है (5.15)। लेकिन जिनमें आत्मज्ञान से अज्ञान का नाश हो गया, उनमें ज्ञान प्रकाशमान सूर्य के समान परमात्मा को प्रकट करता है (5.16)

भगवान एक सिनेमाघर में पर्दे की तरह हंै, जहां पर्दे का इससे कोई लेना-देना नहीं है कि उस पर क्या प्रक्षेपित किया जा रहा है, जबकि दर्शक अलग-अलग भावनाओं का अनुभव करते हैं। ये प्रक्षेपण और कुछ नहीं बल्कि छाया हैं लेकिन हम सभी गहराई से संलग्न होते हैं जो भावनाओं और निर्णयों को लंबे समय तक चलने वाला प्रभाव पैदा करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में पर्दा तटस्थ होता है और इसका हमारी भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता है।

श्रीकृष्ण ने पहले इस सन्दर्भ में मोह-कलीलम का इस्तेमाल किया था (2.52)। एक बार जब हम इस मोह से बाहर हो जाते हैं तो चमकते हुए सूर्य की तरह जागरूकता उजागर हो जाती है।


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