133. श्रद्धा ही ताकत है
अस्तित्व व्यक्त और अव्यक्त का सामंजस्य है जिसमें मनुष्य व्यक्त और परमात्मा अव्यक्त है। बुनियादी स्तर का आपसी बर्ताव परमात्मा के अनादर के साथ मनुष्य और मनुष्य के बीच होता है। श्रीकृष्ण ने इसे असुरों का मार्ग बताया है ( 7.15) । अगले स्तर का बर्ताव मनुष्य और परमात्मा के बीच होता है। यह संक्रमण तब शुरू होता है जब कोई मृगतृष्णा का पीछा करते हुए थक जाता है या अपनी दुर्गति से परेशान हो जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य और परमात्मा के बीच ये बर्ताव यानी पूजा चार प्रकार की होती है। पहली श्रेणी के उपासक अपनी कठिनाइयों को दूर करना चाहते हैं , दूसरी श्रेणी के उपासक धन , सफलता या मन की शांति प्राप्त करना चाहते हैं , तीसरी तरह के उपासक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और चौथे ज्ञानी होते हैं ( 7.16) । श्रीकृष्ण कहते हैं कि पहले तीन उपासक , जो ज्ञान से वंचित हैं , अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न देवताओं की आराधना करते हैं ( 7.20) । यह बीमारियों के आधार पर संबंधित चिकित्सक के पास जाने जैसा है। वह आगे कहते हैं कि जब वे श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं , वह (श्रीकृष्ण) उस श्रद्धा को अविचलित ब