128. हर अंत एक शुरुआत है



 

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘मैं तुम्हारे लिए इस विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता’’ (7.2)। यह ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से मन उन्मुख लोगों के लिए मार्ग है। इससे पहले श्रीकृष्ण ने हृदय उन्मुख (भक्त) लोगों को ‘‘स्वयं में सभी प्राणियों को देखने के लिए, सभी प्राणियों में स्वयं को और हर जगह उन्हें देखने’’ का मार्ग दिखाया था (6.29)। यह जानने के बाद जानने के लिए और कुछ भी नहीं बचता है।

वर्तमान का वैज्ञानिक निष्कर्ष यह है कि शून्य से ब्रह्माण्ड का सृजन होता है। हमारा विस्तार करता हुआ ब्रह्माण्ड 13.8 अरब साल पहले एक बिग बैंग में बना था। कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशन (ष्टरूक्चक्र) के साक्ष्य का हवाला देते हुए, यह तर्क दिया जाता है कि वर्तमान से पहले एक ब्रह्माण्ड था। ऐसा अनुमान है कि कुछ समय बाद ब्रह्माण्ड फैलकर तितर-बितर होकर शून्य के बराबर हो जाएगा और खाली जगह की ऊर्जा एक और ब्रह्माण्ड का सृजन करेगी। इसका तात्पर्य है कि यह सृजन और प्रलय की एक चक्रीय प्रक्रिया है।

यह पृष्ठभूमि हमें समझने में मदद करती है जब श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘वह पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और प्रलय हैं’’ (7.6)। पहला संकेत है कि यह एक चक्रीय प्रक्रिया है। दूसरा, एकत्व सृष्टि और विनाश दोनों को समाहित करती है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक संस्कृति ने ईश्वर को एक सृष्टिकर्ता के रूप में महिमामंडित किया है। लेकिन, परमात्मा के रूप में, श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि वे सृष्टिकर्ता के साथ-साथ संहारक भी हैं।

वे आगे कहते हैं, ‘‘मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है’’ (7.7)। व्यक्त (मणि) और अव्यक्त (सूत्र) को समझाने के लिए अक्सर मणियों की माला का उदाहरण प्रयोग किया जाता है। सूत्र अदृश्य है और बिना सूत्र की सहायता के मणि एक सुंदर आभूषण नहीं बना सकते। यह उस पेड़ की तरह है जो अदृश्य जड़ों के बिना जीवित नहीं रह सकता, ब्रह्माण्ड भी परमात्मा के बिना मौजूद नहीं हो सकता।

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