131. भ्रमों को पार करना

 


श्रीकृष्ण ने प्रकृति जनित तीन गुणों के बारे में उल्लेख किया है और हम सभी उनके द्वारा अलग-अलग कर्मों को अलग-अलग तरीकों से करने के लिए बाध्य हैं (3.5)। वास्तव में, सभी कर्म गुणों द्वारा किए जाते हैं (3.27) और ये कर्म और कुछ नहीं बल्कि गुणों के बीच का परस्पर प्रक्रिया हैं। सत्व गुण ज्ञान के प्रति आसक्ति है; रजो गुण कर्म के प्रति आसक्ति है और तमस अज्ञान और आलस्य की ओर ले जाता है। इस संबंध में, श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘सत्व, तमो और रजो गुणों की सभी अभिव्यक्तियां मुझसे निकलती हैं। हालांकि वे मुझमे हैं, मैं उनमें नहीं हूं’’ (7.12)

इस विरोधाभासी श्लोक को बादलों और आकाश के रूपक के साथ समझा जा सकता है, जहां बादल आकाश में हैं लेकिन आकाश बादलों में नहीं है और बादल आकाश के बिना मौजूद नहीं हो सकते हैं। यह समुद्र में लहरों की तरह है जहां लहर सागर में हैं लेकिन सागर लहरों के बिना भी हो सकता है।

वह आगे विस्तार से बताते हैं कि प्रकृति के तीन गुणों से भ्रमित होकर, प्राणी मुझे शाश्वत और सभी गुणों से परे जानने में असमर्थ हैं (7.13)। श्रीकृष्ण ने पहले भी आगाह किया था कि इन गुणों में हमें सम्मोहित करने की क्षमता है (3.29)

सामान्य धारणा यह है कि व्यक्ति को रजो और तमो गुणों को त्याग कर सत्व गुण प्राप्त करना चाहिए। ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक गुण अपने-अपने ढंग से मोहित करता है। इसलिए, हमें इन सभी गुणों के बारे में जागरूक होकर इनको पार करके शाश्वत स्थिति को प्राप्त करना चाहिए।

श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि गुणों से बनी मेरी दिव्य माया पर काबू पाना मुश्किल है। लेकिन जो लोग मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं (7.14)। इसका मतलब यह है कि, हम परमात्मा के प्रति समर्पण के जीवन को चुन सकते हैं ताकि माया को पार करके आनंदमय जीवन व्यतीत कर सकें या माया के प्रभाव में रहकर संघर्षमय जीवन व्यतीत करें और माया के मृगतृष्णा का पीछा करते रहें जो दु:ख की ओर ले जाता है।


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