152. परमात्मा के भिन्न रूप

 

श्रीकृष्ण कहते हैं, "ऋतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ (9.16) इस सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाला एवं कर्मों का फल देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ" (9.17)

 "प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करनेवाला, सबका स्वामी, शुभ एवं अशुभ को देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार चाहकर हित करनेवाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, आश्रय और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ (9.18) मैं ताप प्रदान करता हूँ, वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ, मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् और असत् भी मैं ही हूँ" (9.19)

 यदि अस्तित्व को हमारी समझ के लिए स्वयं का वर्णन करना पड़े तो यह कुछ ऐसा ही लगेगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रयुक्त सन्दर्भ और शब्द उस समय के हैं जब गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया गया था।

श्रीकृष्ण ने पहले अर्जुन को 'सत्' और 'असत्' को समझने के लिए कहा था (2.16) जो सांख्य योग का दृष्टिकोण है। रस्सी और मायावी सांप का उदहारण इसे समझने में मदद करता है। भक्तियोग के दृष्टिकोण से श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह 'सत्' और 'असत्' दोनों हैं। परमात्मा तक पहुंचने का एक मार्ग 'सत्' और 'असत्' को अलग करने की क्षमता प्राप्त करना है। दूसरा मार्ग यह महसूस करना है कि वे दोनों परमात्मा ही हैं।

परमात्मा के ये विभिन्न रूप यह सुनिश्चित करने में मदद करते हैं कि जब हम इनमें से कोई भी झलक पाने पर उन्हें याद करते हैं तो हम परमात्मा को साकार करने की दिशा में दृढ़ मार्ग पर हैं। यह उतना ही सरल है जितना कि बारिश, जन्म, मृत्यु या आग को देखने पर परमात्मा को याद करना। यह हमारे आस-पास की हर चीज में उन्हें देखने की मानसिकता विकसित करना है।

 


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