69. अभिनेता के साथ-साथ दर्शक भी


हमारे दैनिक जीवन में, हम कुछ कर्मों से जुड़ जाते हैं, जिन्हें हम पसंद करते हैं, जिसे आसक्ति के नाम से वर्णित किया जाता है या हम कुछ कर्मों से नफरत की वजह से अलग हो जाते हैं जिसे विरक्ति के नाम से वर्णित किया जाता है। परन्तु, श्रीकृष्ण एक तीसरी अवस्था का उल्लेख करते हैं, जिसे अनासक्ति कहते हैं, जो आसक्ति और विरक्ति को पार करना है। उनका कहना है कि, ‘‘कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते है, अनासक्त विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे’’ (3.25)

आसक्ति और विरक्ति पर आधारित कर्म हमें दु:खी कर सकते हैं। किसी प्रियजन (आसक्ति) की उपस्थिति हमें खुशी देती है और उनकी अनुपस्थिति हमें दु:खी करती है। इसी प्रकार, घृणा करने वाले (विरक्ति) की उपस्थिति हमें दु:खी करती है और उनकी अनुपस्थिति से राहत मिलती है। इसलिए, आसक्ति या विरक्ति दोनों हमें सुख और दु:ख की ध्रुवों के बीच झुलाने में सक्षम हैं। इसलिए, श्रीकृष्ण हमें सलाह देते हैं कि किसी भी कार्य को करते समय, दोनों को पार कर अनासक्त बनें।

संसार के कल्याण को करुणा के समान समझा जा सकता है जो अनासक्ति के साथ कर्म करने पर उभरकर आती है। जब आसक्ति या विरक्ति के साथ कर्म किया जाता है, तो यह एक कचरा ट्रक की तरह है जो हर जगह गंदगी फैलाती है, जिसका मतलब समाज को हानि पहुँचाना है।

अनासक्त नाटक में एक कलाकार होने और एक ही समय में दर्शक होने जैसा है। एक कलाकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उसे दी गई भूमिका में समर्पण के साथ और अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमताओं के साथ कार्य करे। इसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को संबंधित कार्य क्षेत्र में अपने कौशल, ज्ञान आदि को बढ़ाते रहना चाहिए। साथ ही दर्शकगण में बैठे नाटक का अवलोकन करते हुए दर्शकों का हिस्सा भी होना चाहिए। जबकि अभिनेता का हिस्सा बाहरी दुनिया में हमारा कर्तव्य है, दर्शक हमारे आंतरिक स्व के लिए है। जबकि गुणों से प्रेरणा और कार्रवाई का विकल्प आता है, परन्तु इन क्रियाओं को करते समय अनासक्ति का अभ्यास किया जाना चाहिए। जब हम इस प्रक्रिया में महारत हासिल कर लें तो समझ लें कि गीता कार्यान्वित हो गयी है।

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