73. समर्पण की कला


श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, ‘‘मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और ज्वररहित होकर युद्ध कर’’ (3.30)। यह श्लोक गीता का सारांश है और यह दैनिक जीवन में हमारे कई संदेहों का निवारण करता है।

हमारा पहला संदेह ‘हमें क्या करना चाहिए’ है, जो इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि हम जो कर रहे हैं उससे हम खुश नहीं हैं क्योंकि हमें लगता है कि खुशी कहीं और किसी दूसरी क्रिया में है। लेकिन यह श्लोक हमारे पास जो काम है उसे उच्चतम क्षमता के साथ करने हेतु प्रेरित करता है, जो हमारे द्वारा चुना गया हो या हम पर थोपा गया हो। ऐसा कार्य कुरुक्षेत्र युद्ध जितना ही क्रूर और जटिल हो सकता है, जिसमें किसी को मार दिया जाएगा या स्वयं मर जाएगा। वैज्ञानिक रूप से, हमारा जटिल मानव शरीर एक एकल कोशिका से विकसित हुआ है जहां प्रत्येक क्रिया (उत्परिवर्तन) पिछले क्रिया से जुड़ी होती है। इसका मतलब है कि हमारे पास जो काम है वह हमेशा पिछले कर्मों की एक श्रृंखला का परिणाम होता है और कोई कर्म अकेले नहीं होता है।

अगला प्रश्न है, ‘हमें कर्म कैसे करना चाहिए’। यह श्लोक हमें अर्जुन द्वारा सामना किए गए तनाव या विषाद से उत्पन्न अहंकार, इच्छाओं और ज्वर को छोड़ कर कर्म करने की सलाह देता है। इच्छाओं को छोडऩा हमें दु:खों से मुक्त कर देगा क्योंकि दोनों साथ-साथ चलते हैं।

हमारे सामने आने वाली बाधाओं को कैसे दूर किया जाए का उत्तर श्रीकृष्ण ने सभी कर्मों और बाधाओं को उन पर त्यागने का परामर्श देते हुए दिया है। यहां श्रीकृष्ण परमात्मा के रूप में आ रहे हैं। जब हाथ में काम जटिल होता है, तो हम ज्ञान, शक्ति और अनुभव के सन्दर्भ में अतिरिक्त संसाधनों की तलाश करते हैं जिनके पास यह है। सर्वोच्च मांग परमात्मा के प्रति समर्पण है, खासकर जब समाधान हमारी समझ से परे है।

अहंकार कमजोरी और भय का प्रतीक है, जो अपने अस्तित्व के लिए भौतिक संपत्ति और मान्यता की मदद लेता है। जब कि, परमात्मा पर सब कुछ त्यागने के लिए शक्ति और साहस की आवश्यकता होती है।

Comments

Popular posts from this blog

139. ‘ब्रह्म’ की अवस्था

92. स्वास के माध्यम से आनंद

34. कर्म प्राथमिक, कर्मफल नहीं