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153. भिक्षापात्र को तोड़ना

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  श्रीकृष्ण कहते हैं कि वैदिक अनुष्ठानों के माध्यम से व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश करने की अपनी इच्छा को पूरा करते हैं और दिव्य सुखों का आनंद लेते हैं (9.20) । अपने पुण्य के क्षीण होने पर वापस आते हैं और बार - बार आवागमन के इस चक्र में यात्रा करते रहते हैं (9.21) । सामान्य व्याख्या यह है कि वैदिक अनुष्ठानों के माध्यम से प्राप्त पुण्य हमें जीवन के बाद स्वर्ग में ले जाते हैं और जब पुण्य क्षीण हो जाते हैं तो हम वापस आते हैं। एक और व्याख्या संभव है , यदि इच्छाओं की पूर्ति से संतुष्टि प्राप्त करना स्वर्ग में प्रवेश के रूप में लिया जाता है। अज्ञानता के कारण हम लोगों और भौतिक संपत्तियों की प्राप्ति के द्वारा अपनी इच्छाओं को पूरा करके संतुष्ट होने के लिए वैदिक अनुष्ठानों पर निर्भर रहते हैं। इस मार्ग में , व्यक्ति बार - बार दुःख पाता है क्योंकि बदलती परिस्थितियों से उसे कभी भी शाश्वत संतुष्टि नहीं मिल सकती है। सच्ची संतुष्टि केवल अपरिवर्तनीय स्

152. परमात्मा के भिन्न रूप

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , " ऋतु मैं हूँ , यज्ञ मैं हूँ , स्वधा मैं हूँ , औषधि मैं हूँ , मन्त्र मैं हूँ , घृत मैं हूँ , अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ (9.16) । इस सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाला एवं कर्मों का फल देने वाला , पिता , माता , पितामह , जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद , सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ " (9.17) ।   " प्राप्त होने योग्य परम धाम , भरण - पोषण करनेवाला , सबका स्वामी , शुभ एवं अशुभ को देखनेवाला , सबका वासस्थान , शरण लेने योग्य , प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला , सबकी उत्पत्ति - प्रलय का हेतु , स्थिति का आधार , आश्रय और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ (9.18) । मैं ताप प्रदान करता हूँ , वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ , मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् और असत् भी मैं ही हूँ " (9.19) ।   यदि अस्तित्व को हमारी समझ के लिए स्वयं का वर्णन करना पड़े तो यह कुछ ऐसा ही लगेगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रयुक्त सन्दर्भ