181. प्रारंभ बिंदु
श्रीकृष्ण कहते हैं, "वे जो अपने मन को मुझमें स्थिर करते हैं और सदैव दृढ़तापूर्वक पूर्ण श्रद्धा के साथ मुझ सगुणरूप परमेश्वर की भक्ति में तल्लीन रहते हैं, मैं उन्हें योग में परम सिद्ध मानता हूँ"
(12.2)। हालांकि यह उत्तर विशेष रूप से अर्जुन के लिए है, यह मोटे तौर पर हम सभी पर लागू होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि श्रद्धा किसी भी आध्यात्मिक यात्रा की बुनियाद है।
श्रीकृष्ण ने तुरंत स्पष्ट किया कि निराकार या अव्यक्त का मार्ग भी उन तक पहुंचने का एक मार्ग है। इस संदर्भ में वे कहते हैं, "लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को निग्रह करके सर्वत्र समभाव से मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, निर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापी, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अचल रूप की पूजा करते हैं, वे सभी जीवों के कल्याण में संलग्न रहकर अंततः मुझे ही प्राप्त करते हैं” (12.3-12.4)।
यह पृष्ठभूमि हमें 'श्रीकृष्ण पर मन को स्थिर करने' (12.2) को आसक्तियों को त्यागकर परमात्मा के प्रति एकल केंद्रित मन रखने के रूप में समझने में मदद करती है। साकार रूप (व्यक्त) के मार्ग की सलाह देते हुए, श्रीकृष्ण आसक्ति से उत्पन्न हमारी कठिनाइयों को समझते हैं और इसलिए, श्रद्धा के साथ मन को उनपर केंद्रित करने के लिए हमारा मार्गदर्शन करते हैं।
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