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Showing posts from January, 2025

162. छठी इंद्रिय

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , " आदित्यों में मैं विष्णु हूँ ; मैं चमकता हुआ सूर्य और चंद्रमा हूँ (10.21) । वेदों में , मैं सामवेद हूँ ; मैं वसुव ( इंद्र ) हूँ ; इंद्रियों में मैं मन हूँ ; प्राणियों में मैं चेतना हूँ (10.22) । रुद्रों में मैं शंकर हूँ ; मैं कुबेर हूँ (10.23) । मैं बृहस्पति हूँ ; समस्त जलाशयों में मैं समुद्र हूँ ” (10.24) ।   श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि वह सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा है (10.20) और साथ ही एक पदानुक्रम दिया था कि आत्मा बुद्धि से श्रेष्ठ है ; बुद्धि मन से श्रेष्ठ है ; मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है (3.42) । लेकिन यहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह इंद्रियों में मन हैं जिसे समझने की जरूरत है। ऐसा कहा जाता है कि ' समूचा , अपने भागों के जोड़ से बड़ा होता है ' । इसकी झलक ' एक और एक ग्यारह ' की कहावत में भी मिलती है। कुल मिलाकर दो कान ध्वनि की दिशा का बोध करा सकते हैं ; दो आंखें मिलकर गहराई का बोध पैदा कर स...

161. आदि, मध्य और अंत

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  योग शक्ति और महिमाओं का विस्तार से वर्णन करने के अर्जुन के अनुरोध के जवाब में , श्रीकृष्ण कहते हैं , " अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य महिमाओं का संक्षेप में वर्णन करूंगा , क्योंकि उनके विस्तार का कोई अंत नहीं है " (10.19) । अर्जुन के अनुरोध को स्वीकार करते हुए , श्रीकृष्ण उसे बताते हैं कि उनकी दिव्य महिमा का कोई अंत नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस विशाल अस्तित्व का वर्णन करना संभव नहीं है क्योंकि यह अनंत है और समय के साथ लगातार विकसित और परिवर्तित होता रहता है।   सारे संसार में श्रीकृष्ण अव्यक्त रूप में व्याप्त हैं (9.4) जिस कारण ब्रह्माण्ड संतुलित है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड उनसे इस प्रकार पिरोया हुआ है जैसे कि एक धागे में मणि (7.7) । जीवित प्राणियों का उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं , " मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं उनका आदि , मध्य और अंत भी हूँ " (10.20) ।   हमारे अंदर प्रभु का देवत्व आत्मा के...