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Showing posts from January, 2025

163. समय किसी का इंतजार नहीं करता

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , " मैं अस्त्रों में वज्र हूँ ; मैं गायों में कामधेनु हूँ ; संतान की उत्पत्ति के हेतु में मैं प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में सर्पराज वासुकि हूँ (10.28) । जलचरों में मैं वरुण हूँ ; शासन करनेवालों में मैं यमराज हूँ (10.29) । मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूँ ; मापने वालों में मैं समय हूँ " (10.30) ।   पहले श्रीकृष्ण ने कहा था ' मैं मृत्यु हूँ ' और अब वे कहते हैं वह कामदेव भी हैं। इसके लिए गहन मंथन करने की आवश्यकता है। हमें अपनी समझ की सीमाओं को पार करना होगा। चीजों को अच्छे या बुरे के रूप में विभाजन करने की हमारी प्रवृत्ति ही बाधा है। इस विभाजन के कारण हम जन्म को अच्छा और मृत्यु को बुरा मानते हैं।   हर प्राणी अपने वंश को बढ़ाना चाहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह हर प्राणी में मौजूद ' इच्छा ' हैं जो जीवों की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है। यह बाहर की ओर या दूसरों की ओर बहने वाली ऊर्जा है। जब यह ...

162. छठी इंद्रिय

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , " आदित्यों में मैं विष्णु हूँ ; मैं चमकता हुआ सूर्य और चंद्रमा हूँ (10.21) । वेदों में , मैं सामवेद हूँ ; मैं वसुव ( इंद्र ) हूँ ; इंद्रियों में मैं मन हूँ ; प्राणियों में मैं चेतना हूँ (10.22) । रुद्रों में मैं शंकर हूँ ; मैं कुबेर हूँ (10.23) । मैं बृहस्पति हूँ ; समस्त जलाशयों में मैं समुद्र हूँ ” (10.24) ।   श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि वह सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा है (10.20) और साथ ही एक पदानुक्रम दिया था कि आत्मा बुद्धि से श्रेष्ठ है ; बुद्धि मन से श्रेष्ठ है ; मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है (3.42) । लेकिन यहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह इंद्रियों में मन हैं जिसे समझने की जरूरत है। ऐसा कहा जाता है कि ' समूचा , अपने भागों के जोड़ से बड़ा होता है ' । इसकी झलक ' एक और एक ग्यारह ' की कहावत में भी मिलती है। कुल मिलाकर दो कान ध्वनि की दिशा का बोध करा सकते हैं ; दो आंखें मिलकर गहराई का बोध पैदा कर स...