9. मित्र और शत्रु की पहचान


गीता में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप स्वयं अपने मित्र हैं और आप स्वयं अपने शत्रु हैं। सुराही में फँसे बन्दर की कहानी इसे अच्छी तरह से दर्शाती है।

कुछ मेवों को एक सुराही में रखा जाता है जिसमें बन्दर का हाथ मुश्किल से अन्दर जा पाता है। बंदर सुराही के मुंह से हाथ डालता है और मुट्ठी भर के मेवा पकड़ लेता है। मुट्ठी भर जाने से हाथ का आकार बढ़ जाता है और वह सुराही से बाहर नहीं सकता। मेवों से भरे हाथ को सुराही से बाहर निकालने के लिए बन्दर हर तरह की कोशिश करता है। वह सोचता रहता है कि उसके लिए किसी ने जाल बिछाया है और उसे कभी पता ही नहीं चलता कि अपने विरुद्ध यह जाल स्वयं उसने बिछाया है। किसी भी प्रकार की सलाह बन्दर को इन मेवों को छोडऩे के लिए मना नहीं सकता, बल्कि वह यह सोचता है कि हम उसके मेवों को हड़पने की कोशिश कर रहे हैं।

बाहर से देखने में यह काफी सरल लगता है कि मुट्ठी को ढीला करने के लिए इसमें से कुछ मेवों को गिराना पड़ता है ताकि उसका हाथ बाहर जाए। लेकिन जब हम फंस जाते हैं इस सरल तथ्य को महसूस करना ही हमारे लिये एक चुनौती होती है।

बंद मुट्ठी हमारी दुश्मन है और खुला हाथ हमारा दोस्त है और इसे समझकर हम खुद को दोस्त या दुश्मन बना सकते हैं।

जीवन में, हम ऐसे ही कई जालों का सामना करते हैं। वे मेवे और कुछ नहीं बल्किमैंऔरमेराहैं; अहंकार उनसे हमारा हाथ बांधता है। गीता बार-बार हमें अहंकार को छोडऩे के लिए कई तरह से कहती है, ताकि हम इन जालों से मुक्त होकर परम स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकें।

इन जालों के बारे में अहसास तब आसान हो जाता है जब हम बहुत शोर-शराबे के साथ तेज गति वाली दुनिया से हटकर अपनी गति धीमी करते हैं।

 

Comments

Popular posts from this blog

53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा

17. चार प्रकार के ‘भक्त’

58. इच्छाएं और जीवन की चार अवस्थाएँ