58. इच्छाएं और जीवन की चार अवस्थाएँ


 

श्रीकृष्ण कहते हैं: जैसे जल में चलनेवाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है (2.67) हवा हमारी इच्छाओं का एक रूपक है जो हमारे मन और इंद्रियों को चलाती है और बुद्धि (नाव) को अस्थिर कर देती है।

इच्छाओं के संदर्भ में, जीवन को चार चरणों में विभाजित किया जाता है, अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, जहाँ विभाजन केवल उम्र पर बल्कि जीने की तीव्रता पर भी निर्धारित होता है।

पहले चरण में कुछ बुनियादी कौशल के साथ बड़ा होना, सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करना और शारीरिक शक्ति एकत्र करना शामिल है। दूसरे चरण में, यह परिवार, कर्म, कौशल में वृद्धि, संपत्ति और यादें इकट्ठा करना, जीवन के विभिन्न पहलुओं के संपर्क में आना और सफलता या असफलता के साथ जुनून और इच्छाओं का पीछा करते हुए जीवन के अनुभव प्राप्त करना है। इस प्रक्रिया के माध्यम से, व्यक्ति ज्ञान, कौशल और जीवन के अनुभवों का एक मिश्रण प्राप्त करता है जो जागरूकता के लिए प्रजनन स्थल है।

तीसरे चरण में संक्रमण स्वचालित नहीं है। जैसे महाभारत में, राजा ययाति को इस संक्रमण के लिए एक हजार साल लग गए क्योंकि वे अपनी विलासिता को नहीं छोड़ सकते थे। दिलचस्प बात यह है कि ये अतिरिक्त वर्ष बच्चों की कीमत पर आये। इन परिस्थितियों में, यह श्लोक (2.67) हमें चिंतन करने और तीसरे चरण में संक्रमण करने में मदद करता है।

तीसरे चरण में, जागरूकता हमें धीरे-धीरे इच्छाओं को छोडऩे में मदद करती है क्योंकि तबतक यह महसूस होता है कि अतीत की इच्छाएं अब मूर्खतापूर्ण या अप्रासंगिक हैं; हमारी धारणाएँ कैसे गलत थीं; कैसे पूरी और अधूरी दोनों इच्छाओं के एक ही विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। इस बोध के साथ, एक संन्यासी बनने के लिए अंतिम चरण के लिए तैयार है, जो साक्षी होने के लिए अहंकार / कर्तापन को छोड़ रहा है।

अंतिम चरण में, यह पहले चरण के जानने (इंद्रियों के माध्यम से) से होने (इंद्रियों से स्वतंत्र) तक का संक्रमण है।   श्रीकृष्ण इसे (2.68) कहते हैं, ‘‘बुद्धि की स्थापना तब होती है जब सभी इंद्रियों को विषयों से रोक दिया जाता है।’’

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